राह भूले तो नहीं न ....ये दिन वही हैं चैत के । कुसुम के लाल-लाल नाजुक पत्तों और पलाश से दग्ध जंगल सा दग्ध हृदय लिए मैं बैठी थी हल्की फुहार की आस में।
आज बार-बार याद आ रहे तुम। ऐसा नहीं कि सिर्फ़ आज की बात हो। तुम रोज याद आते हो....मगर इस चैत माह में कुछ ज्यादा। इसलिए कि ये ही वो दिन था जब मेरी तलाश खत्म हुई थी...तुम मिले थे मुझे, इस अनकहे वायदे के साथ कि साथ कभी न छोड़ोगे। डगर चाहे जो भी हो...रास्ता लंबा हो चाहे जितना, धूप कड़ी हो या कि हो बारिश।
इसलिए इस दिन को बहुत खास मानती हूँ मैं....इस लंबे रास्ते को देखकर दुःख नहीं होता, खुश होती हूँ.... कि तुम साथ हो....पलाश से दग्ध जंगल और जीवन में भी।
यूं भी तुम मुझे चैताली ही कहते हो....बहती पुरवाई सी चैताली .....और तुम .....मेरे पसंद के वो जंगली फूल हो जिसका नाम नहीं पता मुझको .....बस सुवासित हूं ....
3 comments:
वाह !सुंदर ख़्याल
समय घूम फिर के उसी जगह आकर ठहर जाता है भले ही कुछ पल के लिए ही सही लेकिन ठहरता जरूर है
बहुत सुंदर रचना 👌👌👌
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