चेहरा मेरा था...निगाहें उसकी...वो देखता जाता...लगातार नहीं टिकती थींं उसकी निगाहें...कभी आकाश तकता तो कभी रास्ता। मगर मुड़कर निगाहें अटकती मेरे ही चेहरे पर। दिल की बेचैनी बज़ाहिर थी चेहरे से...दो कदम आगे..तो दो कदम पीछे। मगर हिम्मत नहीं होती की आगे बढ़कर छू भी ले...
मैं ठहरी रही...देखती रही बेचैनियां उसकी। हालांकि आंखें मेरी भी कह रही होंगी दिल का फसाना। कभी उमड़ता प्यार का सैलाब तो कभी बरसना चाहता। देखा जो था इतने बरस बाद उसे। वो आया था फिर से। अपने उसी मुस्कराहट का फंदा उठाए, जिसमें फंसकर निकल नहीं पाता कोई।
शरमाहट बरकरार थी उसके होंठों पर। आंखों ने कहा..आओ करीब। जमाने की बंदिशों से राह रोकी। फिर हुआ कल मिलने का वादा। सांझ को गली में खिले थे गुलाबी फूल..कचनार के। सड़क के दोनों ओर गुलाबी-गुलाबी।
उचककर तुमने तोड़ लिया एक फूल....होंठों से छूकर सीने से लगाया और मुड़ गए दूसरी ओर....जानती हूं...कचनार के फूल तुम्हें बहुत पसंद है....और मुझे क्या कह कर बुला रहे थे आज तुम....
ओ मेरी कचनार.....
5 comments:
बहुत सुंदर वर्णन
बहुत सुंदर वर्णन
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा आज शनिवार (03-12-2016) के चर्चा मंच
"करने मलाल निकले" (चर्चा अंक-2545)
पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर प्रस्तुति
Dhnyawad
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