Tuesday, August 9, 2016

नफरतों के जंगल में....



प्रेम राख है या
राख्‍ा तले दबी चि‍ंगारी
कुरेदकर देखो
शोला लपकता है या टूटता है बांध
जैसे बारि‍श से उफनाती कारो नदी

गुम गया प्रेम भी
स्‍वर्णरेखा के स्‍वर्ण की तरह
बस
नाम से इति‍हास झांकता है
जैसे याद से प्रेम

पुरानी बदरंग तस्‍वीरों में
गया वक्‍त ठहरा होता है
कि‍सी के जि‍क्र से
चौंक उठते हैं
पलटते हैं पुराना अलबम
अनजाने कराहते हैं  कि‍
वक्‍त था एक जब प्रेम
सारंडा के जंगलों की तरह हरा-भरा और
घनघोर था

मगर
नि‍त के छल-प्रपंच से
आहत हुए जज्‍बात
और हम भी माथे पर बांध कर
वि‍रोध का लाल फीता
उपद्रवी बन गए, बस उत्‍पात करते हैं
कभी शब्‍दों, कभी कृत्‍य से

ध्‍वस्‍त रि‍श्‍ते की सारी सुंदरता
तज एकांत चुन
लाल कंकरीली मि‍ट्टी के 'रेड कार्पेट' पर
नंगे पांव चलते हैं
दर्द रि‍सता है
राख हुए प्रेम में
तलाशते हैं कोई बची-खुची चि‍ंगारी

नफरतों के जंगल में
साल के पत्‍तों की तरह सड़ते-गलते हैं
लौटते नहीं वापस
प्रेम बचा सकता था सब कुछ
मगर
हर उस चिंगारी के ऊपर
राख तोपते हैं
जि‍सके लहकने से गांव का रास्‍ता
खुल सकता है अब भी

चुनते हैं बीहड़
छुप जाते हैं कि‍सी सारंडा या
पोड़ाहाट के जंगल से घने
मन के घोर अंधेरे में
प्रेम नकार बनते है आत्‍महंता
करते हैं जंगलों से प्रेम का दि‍खावा
पालते हैं घाव

कि‍सी एक के बदले में मारते हैं सौ
फि‍र अतंत: अपनी ही आत्‍मा
झूठे दंभ में जीते है
वास्‍तव में
उसी दि‍न मर जाते हैंं हम
जि‍स दि‍न से दि‍ल में बसे प्रेम का वध कि‍या था।

तस्‍वीर- पानी में भीगती हुई एक आदि‍वासी महि‍ला..

5 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (10-08-2016) को "तूफ़ान से कश्ती निकाल के" (चर्चा अंक-2430) पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

रश्मि शर्मा said...

Bahut bahut dhnyawad aur aabahr aapka

RITA GUPTA said...

बहुत ही ख़ूबसूरत रचना, सारंडा के जंगल, स्वर्ण रेखा नदी और प्रेम बहुत सुंदर उदगार. . वाह. कृपया मेरे ब्लॉग का भी लुफ्त उठायें. https://shortncrispstories.blogspot.in/

दिगम्बर नासवा said...

प्रेम के मरने से सच में मर जाते हैं हम ... गहरी रचना ....

सदा said...

Behad gehan bhav ...... Lajwaaab !!