Wednesday, July 20, 2016

मानसून में हि‍रनी फाॅल, पोड़ाहाट और चक्रधरपुर का सफ़र

हरे-भरे पेड़ के बीच सड़क 
रांची से 120-125 कि‍लोमीटर की दूरी पर है चक्रधरपुर। पर कभी गई नहीं थी उस ओर। अचानक एक मि‍त्र के घर जाना पड़ा। मानसून के खुशनुमा मौसम में नि‍कल पड़े सड़क मार्ग से। रांची से शुरू कि‍या सफर खूंटी, मुरहू, बंदगांव होते हुए चक्रधरपुर तक। 

पहाड़ि‍यों पर उतरा बादल 
एन एच 75 पर गुजरते हुए लग रहा था जैसे इतनी खूबसूरती कभी देखी न हो। मुरहू से थोड़ा आगे नि‍कले तो पोडाहाट का जंगल शुरू हो गया। घनेरे, हरे-भरे जंगल और पहाड़ों की चोटी पर ठहरा बादल जैसे, शि‍खर पर बर्फ लि‍पटी हो। कहीं सीधी तो कहीं बलखाती सड़क। सड़क के दोनों कि‍नारे इतने हरे भरे पेड़ है कि‍ लगता है स्‍वच्‍छ वायु को अपने अंदर भर लें, ताकि‍ कुछ दि‍नों तक ताजी हवा का अहसास होता रहे। 

नीचे खूबसूरत घाटी और हरि‍याली 
नीचे घाटी है तो ऊपर पहाड़। घने जंगल के बीच सीढ़ीदार खेती और बीच में झोपड़ीनुमा घर देख लगता है कि‍ हम वाकई पहाड़ पर चले आए हैं। वैसे तो झारखंड पठारी इलाका है, यहां की मि‍ट्टी भूरे रंग की होती है  पर यह हरि‍याली देखकर लगता है अपना छोटानागपुर का क्षेत्र कि‍सी भी हि‍ल स्‍टेशन को टक्‍कर दे सकता है।

नदी की पतली धार 

सड़क से धीमी रफ्तार से चलते-चलते हमें अचानक नदी के कलकल की आवाज आई। हम रूककर नीचेे घाटी में  झांके। नीचे पतली सी नदी नजर आई, जि‍सका पानी मटमैला नजर आ रहा था। पता चला ये रामगढ़ नदी का पानी है जो नीचे उतरकर हि‍रनी जलप्रपात में तब्‍दील हो जाती है। नीचे गेस्‍ट हाउस जैसा नजर आ रहा था। हम बेहद खुश हुए कि‍ प्रकृति‍ के और पास जाने का मौका मि‍ल रहा है।  


हि‍रनी फॉल का सुंदर दृश्‍य 

जरा नीचे घाटी से उतरने पर सड़क से आधा कि‍लोमीटर अंदर है हि‍रनी फॉल। अच्‍छा लगा कि‍ सरकार ने थोडा़ काम करवाया है यहां। हमें गार्ड भी मि‍ले। अंदर जाने के लि‍ए टि‍कट भी लगता है। साफ-सफाई की जाती है ऐसा लगा, या फि‍र अभी पि‍कनि‍क का मौसम नहीं, कोई भीड़भाड़ नहीं सो स्‍वचछता थी। रांची से बस 80 कि‍लोमीटर की दूरी पर है यह खूबसूरत जलप्रपात। 
उपर पहाड़ों से चार धाराएं नीचे आ रही थी। एक माेटी धार और बाकी पतली। करीब 121 फीट की ऊंचाई से गि‍रता है पानी। आसपास कई तरह के पौधे। सब हरे मगर सबका हरापन अलग सा। पानी नीचे जाकर जरा गंदला सा लग रहाा है। शायद बरसाती पानी और मि‍ट्टी के मि‍ल जाने के कारण ऐसा हुआ होगा। पानी के ऊपर एक छोटी सी पुलि‍या थी, जहां खड़े रहकर झरने का आनंद उठाया जा सकता है। कुछ बैठने के शेड भी हैं। वहां ऊपर जाने का रास्‍ता भी है। लोग झरने के पानी तक जा सकते हैं, घने पेड़ -पौधों के बीच से। मगर हमें आगे जाना था इसलि‍ए नीचे से ही नि‍कल लि‍ए। 

पत्‍थरों से उतरती झरना
आगे सफ़र में हरि‍याली ने साथ नहीं छोड़ा। कहीं गाढ़ा हरा तो कहीं हल्‍का। पेडों के पत्‍तों का रंग गहरा था तो धान की बालि‍यों से लहलहाते सुग्‍गापंखी खेत। कच्‍चे घर, कहीं लकड़ी के बने तो कहीं खपरैल। सड़क पर साईकि‍ल सवार अपने कैरि‍यर में लकड़ी का बड़ा ऊंचा सा गट्ठर लेकर चलेे जा रहे थे। गजब का संतुलन नजर आ रहा था। नीचे घाटी पर तेजी से उतरती साईकि‍ल और उस पर एक बड़ा गट्ठर। 

खेतों में जमा पानी और पहाड़ की हरि‍याली
धान रोपने के बाद आराम करती महि‍लाएं 
सड़क कि‍नारे कुछ बच्‍चे और थोड़ी-थोड़ी दूर पर कई जगह औरतें 'रूगड़ा' लेेकर बैठी थी कि‍ कोई सफर वाला इसे खरीद ले। बरसात के मौसम में रूगड़ा होता है। यह साल के जंगलाें में मि‍लता है। रूगड़ा दाे प्रकार का होता है, सफेद और काला रूगड़ा। आदि‍वासी महि‍लाएं इसे जंगलों से चुनकर लाती हैं। जहां से रूगड़ा नि‍कलता है उस जगह पर जमीन में दरारें पड़ जाती है। यह दोनों तरह से बि‍कता है, मि‍ट्टी सहि‍त या धाेकर। धोने के बाद गोल-गोल सफेद दि‍खता है।इसे काटकर पकाया और खाया जाता है। स्‍वाद में बि‍ल्‍कुल मांसाहारी। ग्रामीणों का कहना है कि‍ रूगड़ा तभी नि‍कलता है जब बादल गरजते हैं। जि‍तनी अधि‍क बारि‍श होगी, रूगड़ा उतना ही नि‍कलेगा।


झारखंड में पाया जाने वाला स्‍वादि‍ष्‍ट रूगड़ा
दरअसल जहां साल या सखुआ वृक्ष की पत्‍ति‍यां गि‍र कर सड़ती हैं, वहीं रूगड़ा उत्‍पन्‍न होता है। आदि‍वासि‍यों का मानना है कि‍ जि‍तना अधि‍क बादल कड़केगा, रूगड़ा उतना ही मि‍लेगा। यह मशरूम की प्रजाति‍ का होता है और स्‍वाद के साथ-साथ भरपूर पौष्‍टि‍क भी होता है। इसलि‍ए इसका दाम भी बहुत ज्‍यादा है। इस मौसम में रूगड़ा 400 रूपए कि‍लो बि‍का शुरूआत में और अभी भी बाजार में इसकी कीमत 160 रूपये कि‍लो है।  

बहरहाल, हमने भी सोचा रूगड़ा खरीदा जाए, मगर वापसी में। हम चल रहे थे आगे और हमारे साथ था पोड़ाहाट का जंगल । पोड़ाहाट और सारंडा के जंगल को नक्‍सलि‍यों के कारण ज्‍यादा जाना जाता है। आए दि‍न नक्‍सली गति‍वि‍धि‍यों की खबर आती है। जंगलों में हाथी भी बहुत हैं जो कभी-कभी गांवों की ओर भी आ जाते हैं।  यहां के जंगलों में साल, आम, कटहल पलाश आदि‍ कई तरह के वृक्ष मि‍लते हैं। बहुत घना जंगल है और उतना ही खूबसूरत। 

बारि‍श से बचने को छतरी लेकर धनरोपनी करती युवति‍यां 


कुछ काम करतीं, कुछ आराम करती ग्रामीण महि‍लाएं 

मानसून है इन दि‍नों।  इतना भीगा-भीगा सा मौसम था जैसे पेड़ों ने अपनी फुनगि‍यों पर पानी समेट रखा है और धीरे-धीरे बरसा रही हैं जल जि‍ससे सारा वातावरण भीग रहा है। खेतों में औरतें धनरोपनी कर रही है। घुटनों तक साड़ी उठाए, झुुकी हुई धान के बि‍चड़े रोप रही थी। दूर से रंग बि‍रंगे कपड़े पहने बहुत ही खूबसूरत लग रहा था सारा नजारा। पहाड़, हरि‍याली और खेतों का संगम आंखों के साथ-साथ दि‍ल को भी हरा कर रहा था।

इतनी देर सफर के बाद चाय की तलब हुई। हम नकटी गांव रूके। वहां एक झोपड़ी में वृद्ध महि‍ला ने कोयला चुल्‍हा सुलगाकर हमारे लि‍ए चाय बनाई। धुएं के गंध के बावजूद चाय अच्‍छी बनी थी। अब कराईकेला के बाद चक्रधरपुर। 


6 comments:

  1. तस्वीरों के साथ बहुत सुंदर वर्णन

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर यात्रा -संस्मरण रश्मि जी !! चित्रात्मक भाषा मन मोह लेती है।
    रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर यात्रा वृत्तान्त और खूबसूरत चित्र

    ReplyDelete
  4. झारखण्ड हमारे दिल में बसता है और आपने भी दिल खोल कर झारखण्ड दर्शन कराये। सम्मोहन से भरा होता यहां सफर करना। जाड़े की शुरुआत में कुहासे की चादर मिलती तो गर्मी आने के पहले निकलें तो नईं पतियों और लाल लाल फूलों से भरा जंगल वहीँ रुक जाने को कहता हुआ लगता है।
    बहुत सुंदर वर्णना है।👍👍

    ReplyDelete

अगर आपने अपनी ओर से प्रतिक्रिया पब्लिश कर दी है तो थोड़ा इंतज़ार करें। आपकी प्रतिक्रिया इस ब्लॉग पर ज़रूर देखने को मिलेगी।