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लेखक विमलमित्र जी की 1975 की तस्वीर जब वो आचार्य शशिकर जी के घर आए थे |
थोड़ी ही देर में हम चक्रधरपुर में थे। मित्र का आवास हवेलीनुमा है। बाहर से भी और अंदर से भी। यह मकान 1930 में बनकर पूूरा हुआ था, यह बाहरी गेट पर अंकित है। अंदर ऊंचे छत और बड़ा आंगन अपने दौर की गवाही दे रहा था। एक कमरे की दीवार में तस्वीर दिखी, जिसमें उसके दादाजी के साथ लेखक विमलमित्र खड़े थे। मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। पता चला कि लेखक विमल मित्र का यहां आना-जाना था। मित्र के दादाजी आचार्य शशिकर ने उनको अपने पुत्र के ब्याह का निमंत्रण भेजा था और वो सबसे मिलने चक्रधरपुर आए थे। मुझे बहुत अच्छा लगा जानकर। दादाजी के आलमीरा में विमलमित्र की लिखी लगभग सारी किताबें भरी हुई थी।
दरअसल विमल मित्र जी रेलवे में काम करते थे और कुछ दिनों तक चक्रधरपुर डिवीजन में भी उन्होंने काम किया था। यह लगभग 1940 के आसपास की बात है। उनके उपन्यास 'चार आंखों का खेल' चक्रधरपुर में रह रहे एंग्लो-इंडियन के ऊपर आधारित है। बाद में उन्होनें नौकरी छोड़ दी थी,और यहां से चले गए। मगर तस्वीरें गवाह है कि उन्होंने उस वक्त के बने संबधों को निभाया। दूसरे कमरे की दीवार पर डा. राजेन्द्र प्रसाद की भी तस्वीर लगी थी।
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चक्रधरपुर में मित्र का आवास
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चक्रधरपुर पश्चिमी सिंहभूम में पहाड़ियों से घिरा छोटा सा शहर है। आसपास जंगल होने के कारण यहां पहले बीड़ी का व्यापार खूब फलता-फूलता था। दूसरा रेलवे डिवीजन होने के कारण यहां रेलवे कर्मचारी अधिक हैं और यह शहर अपने रेलवे स्टेशन कोड के नाम पर रखा सी के पी के नाम से जाना जाता है। पोड़ाहाट (चक्रधरपुर) अखंड सिंहभूम की राजधानी रही है।
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हवेली की छत पर |
हमलोगों ने काफी वक्त वहां गुजारा। पहली बार बीड़ी का कारखाना भी देखा। चूंकि पोड़ाहाट के जंगलों में तेंदू के खूब पेड़ हैं इसलिए वहां किसी वक्त बीड़ी का खूब अच्छा व्यापार होता था। अब वो दिन नहीं, फिर भीी पुराना कहीं कुछ बचा रह जाता है। पुरानी हवेली, पुराना व्यापर या पुरानी याद। दिन के भोजन के बाद वहां से चल पड़े। चूंकि रास्ता लगभग सुनसान है और घाटी भी है, सो रात घिरने से पहले हमें लौटना ही था। बातचीत करते, नजारे देखते हम लौटने लगे।
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बरसात से और निखरा धरती का सौंदर्य |
अब बारिश तेज होने लगी थी। घाटी की खूबसूरती और बढ़ गई इससे। तभी एक मोड़ पर एक औरत रूगड़ा बेचती दिखी। आखिरकार हमने गाड़ी रोक ही दी। उसने दो बरतनों में रूगड़ा और दो में अमरूद रखे थे बेचने को। देखने से अमरूद काफी ताजा लग रहा था, जैसे अभी तोड़ा हो। उसके पास एक काला कुत्ता बैठा था, साथ ही एक काली छतरी भी रखी थी बगल में।
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जाने किस ओर ले जाए ये सड़क |
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अपना सामान समेटती ग्रामीण महिला
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हमने दाम पूछा। वो हिंदी बोल नहीं पा रही थी। कहा पुटका 90 टाका, और टमरस 20 टका का। पुटका यानी रूगड़ा और टमरस मतलब अमरूद। तोलमोल का कोई हिसाब नहीं था। सो जितना कहा हमने उसे पैसे देकर सब खरीद लिया क्योंकि हम जानते थे कि सामान खराब नहीं होगा और सब बिक जाने पर वह घर जा सकेगी। उसने बरतन समेटा अपना। मैंने पूछा ये कौन सी जगह है- टेबो घाटी बोलकर वह चल पड़ी, हम भी। हमने वहीं अमरूद खाए, लाल अमरूद यानी टमरस का स्वाद बहुत दिन बाद लिया।
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अपनी छोटी बहन को साईकिल की सैर कराती बच्ची |
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भीगी सड़क पर दो बच्चों का याराना
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शाम होने वाली थी। गांव वालों की चहल-पहल से अच्छा लग रहा था। कुछ महिलाएं भीगते हुए कुएं पर कपड़े धो रही थी तो कुछ नहा रही थी। बच्चे छतरी ताने कहीं जा रहे थे, तो कुछ मुर्गियां दाना चुन रही थी घर के बाहर। खेतों में पानी जमा था। धान के नए पौधें का रंग खूब हरा , खूब सुंदर । पेड़ गहरे हरे रंग के थे। बारिश से दूर के सारे पेड़ धुंध में घिरे नजर आ रहे थे। भेड़, बकरी और गाय एक साथ चर रही थीं। उनका बूढ़ा चरवाहा छाता लिए आराम से बैठा हुआ जानवरों को घास चरते देख रहा था। धान रोपती महिलाएं। ये श्रम का कार्य है। कई-कई दिन लग जाते हैं। ण्क छोटी बच्ची अपने से भी छोटी बहन को साईकिल पर घुमा रही थी। एक औरत माथे पर झुरी (छोटी-छोटी सूखी लकड़ियां) लेकर एक हाथ से अपने बच्चे का हाथ थाम कर चली जा रही थी।
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माथे पर सूखी पतली लकड़ियों का गट्ठर लेकर जाती महिला |
अब शाम ढलने लगी। बारिश भी तेज हो गई थी। हमें एक बात अखरी कि सड़क चौड़ीकरण के नाम पर दोनों तरफ पेड़ों को काट दिया जा रहा है। अगर संतुलित तरीके से कार्य नहीं हुआ तो इस राह की खूबसूरती जाती रहेगी। यहां इको टूरिज्म को बढ़ावा दिया जा सकता है। खैर, हम सफर का पूरा आनंद ले रहे थे। रास्ते में कई ऐसे जगह मिले, जहां उतरकर कुछ देर वक्त गुजारने का मन हो आया। मगर हमें लौटना था सो लौट आए चक्रधरपुर से वापस घर।
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हरे-भरे पेड़ का अवशेष देख बहुत दुख हुआ। |
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सड़क पर टहलता बच्चा। |
रश्मि जी आपने तो तीरथ करा दिया। मैं विमल जी की क़िताबें बहुत चाव से पढ़ता हूँ और उन्हें कितना भी पढ़ूँ थकता नहीं। अभी तक हिन्दी में अनूदित उनकी तीस क़िताबें मेरे पास हैं। सचमुच 'चार आँखों का खेल' चक्रधरपुर के एंग्लोइंडियन परिवार पर लिखी गई है।
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