शाम लौटकर होटल में थोड़ी देर आराम किए। फिर निकल पड़े स्वर्णमंदिर में मत्था टेकने, जिसके लिए डलहौजी जाते-जाते बीच रास्ते उतर गए थे हम। होटल से सौ कदम दूर जाने पर ही गुरुद्वारे की ओर रास्ता जाता था। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लोग रूमाल बेच रहे थे। हमने भी गेरुआ रूमाल खरीदा सर ढकने को।
जैसे ही मुख्य द्वार की ओर बढ़े, आखें ठहर सी गईं। शाम को बिजली की रौशनी में बाहरी दीवारे चमक रही थीं। हमने अपने जूते उतारे और मुख्य द्वार पर पानी पर चलकर अपने पैर स्वच्छ करते नीचे सीढ़ियां उतरे। अहा...सामने ही सरोवर और उसके बीच सोने का दमकता स्वर्ण मंदिर। हमारे कदम आगे बढ़े ही नहीं। हम वही सरोवर के किनारे बैठ गए। सामने हरमंदिर साहेब के दर्शन करते। सरोवर में किनारे तक मछलियां आ रही थीं। अभिरूप तो उन्हें देखने में ही मगन हो गया।
श्री हरमंदिर साहिब का निर्माण सराेवर के मध्य में 67 फीट के मंच पर किया गया है। यह मंदिर 40.5 वर्ग फीट में हैं और चारों दिशाओं में इसके चार दरवाजे हैं। सभी दरवाजों का फ्रेम लगभग 10 फीट ऊंचा और 8 फीट 4 इंच चौड़ा है। इसके दरवाजों पर कलात्मक शैली की सजावट की गई है।
16 वीं शताब्दी में सिखों के चौथे गुरु रामदास ने एक तालाब के किनारे डेरा डाला, जिसके पानी में अद्भुत शक्ति थी। इसी कारण इस शहर का नाम अमृत+सर (अमृत का सरोवर) पड़ा। गुरु रामदास के पुत्र ने तालाब के मध्य एक मंदिर का निर्माण कराया जो आज स्वर्ण मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।
चारों ओर लोग ही लोग थे। हर उम्र, अलग लिबास मगर सबके सर ढके हुए। सब वहां फोटो और सेल्फी लेते नजर आए। हमने भी ली। मंदिर की छवि सरोवर पर पड़ रही थी और हमलोग मुग्ध भाव से निहारते रहे बहुत देर तक। कई लोग पानी में पांव डाल रहे थे, जिसे सुरक्षा समिति के लोग मना कर रहे थे। हम भी अपने पांव ऊपर समेट कर बैठे रहे बहुत देर। हालांकि जब हम सुबह फिर गए तो लोग स्नान करतेे मिले। स्त्री-पुरूष दोनों ही। सरोवर किनारे कंधों तक लंबाा घेरा किया हुआ था जहां लोग कपड़े बदलते थे नहा कर।
हमलोगों ने बहुत वक्त वहीं बिताया। फिर अपनी अरदास देने मंदिर की बारे बढ़े। बहुत ही लंबी लाइन थी। मगर धीरे-धीरे लाेेग आगे बढ़ते जा रहे थे। सुनहला द्वार , ऊपर छत की नक्काशी और हजारों लोगों की भीड़। हम पंक्तिबद्ध थे। जैसे जैसे मंदिर करीब आता जा रहा था, शुद्ध घी के बने हलवों की सुगंध हमारे नाक में भरती जा रही थी। जल्दी ही हमलोग मंदिर तक पहुंच गए। वहां मत्था टेका। कुछ मिनट के लिए थमे से देखते रहे। मन ही मन प्रार्थना करने के बाद बाहर निकल गए। बाहर निकलते ही प्रसाद ग्रहण किया। तब तक रात के 11 बज चुके थे।
सुबह उठ नहा कर चलने के लिए तैैयार हुए। तब तक गर्मी हो गई थी। बच्चों ने कहा- आप हो आओ, हम यहीं रूकते हैं। तो हमदाेनों निकल पड़े। सुबह की छवि अलग थी रात की छवि से। बाहर संगमरमर के बने प्रवेश द्वार से उतरकर फिर सामने थे हरमंदिर साहिब के। दर्शन के लिए भक्तों की पंक्ति उतनी ही लंबी दिखी जितनी रात को। कुछ लोग सरोवर में स्नान करते दिखेे तो कुछ लोग एक बेरी वृक्ष के नीचे सिर नवाते दिखे। पता चला इसे भी तीर्थस्थ्ाल माना जाता है। इसे बेर बाबा बुड्ढा के नाम से लोग जानते हैं। कहा जाता है जब स्वर्ण मंदिर बन रहा था तब बाबा जी इसी वृक्ष के नीचे बैैठकर निर्माण कार्य देखते थे।
आगे कई लोग बैठे जूठे बर्तन धो रहे थे। संगमरमर की जमीन पर बहुत लोग सोए हुए थे। थोड़ी दूर पर शबद-गायन हो रहा था। हमने यहां के लंगर के बारे में सुना था। पर कही दिख नहीं रहा था कहां लंगर चलता है। एक बुजूर्ग सिख से पूछा तो उन्होनें बताया उधर जाओ और छको लंगर। हमने उन्हें धन्यवाद दिया और चल पड़े। बीच में कई जगह ठहरे। दर्शन किया, सर झुकाया और बढ़ गए आगे।
लंगर वाले स्थान पर पहुंचे तो वााकई दंग रह गए। जैसा सुना वैसा पाया। हजारों की भीड़, बतर्नों का अंबार। पता लगा लगभग 40 हजार लोग यहां लंगर में खाना खाते हैं। हमने भी प्रसाद स्वरूप वहां चाय पी और निकलने लगे। वहां दीवान हाल पर नजर पड़ी। देखा हजारों लोग सोए हुए हैं।
स्वर्ण मंदिर, एक ऐसी जगह है, जहां आस्था है, पूजा है, प्रार्थना है और बिना भेदभाव के जहां सब प्रवेश पा सकते हैं। कोई भूखा जाए तो वहां खाकर ही निकले। चाहे तो सो ले, वो भी नि:शुल्क। हम वाकई बेहद अभिभूत हुए। कई बार सोचा था दर्शन को, इस बार बाबा के दरबार में हमने भी अपनी उपस्थित दर्ज की और निकल पड़े आगे सफर को।
जैसे ही मुख्य द्वार की ओर बढ़े, आखें ठहर सी गईं। शाम को बिजली की रौशनी में बाहरी दीवारे चमक रही थीं। हमने अपने जूते उतारे और मुख्य द्वार पर पानी पर चलकर अपने पैर स्वच्छ करते नीचे सीढ़ियां उतरे। अहा...सामने ही सरोवर और उसके बीच सोने का दमकता स्वर्ण मंदिर। हमारे कदम आगे बढ़े ही नहीं। हम वही सरोवर के किनारे बैठ गए। सामने हरमंदिर साहेब के दर्शन करते। सरोवर में किनारे तक मछलियां आ रही थीं। अभिरूप तो उन्हें देखने में ही मगन हो गया।
श्री हरमंदिर साहिब का निर्माण सराेवर के मध्य में 67 फीट के मंच पर किया गया है। यह मंदिर 40.5 वर्ग फीट में हैं और चारों दिशाओं में इसके चार दरवाजे हैं। सभी दरवाजों का फ्रेम लगभग 10 फीट ऊंचा और 8 फीट 4 इंच चौड़ा है। इसके दरवाजों पर कलात्मक शैली की सजावट की गई है।
16 वीं शताब्दी में सिखों के चौथे गुरु रामदास ने एक तालाब के किनारे डेरा डाला, जिसके पानी में अद्भुत शक्ति थी। इसी कारण इस शहर का नाम अमृत+सर (अमृत का सरोवर) पड़ा। गुरु रामदास के पुत्र ने तालाब के मध्य एक मंदिर का निर्माण कराया जो आज स्वर्ण मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।
चारों ओर लोग ही लोग थे। हर उम्र, अलग लिबास मगर सबके सर ढके हुए। सब वहां फोटो और सेल्फी लेते नजर आए। हमने भी ली। मंदिर की छवि सरोवर पर पड़ रही थी और हमलोग मुग्ध भाव से निहारते रहे बहुत देर तक। कई लोग पानी में पांव डाल रहे थे, जिसे सुरक्षा समिति के लोग मना कर रहे थे। हम भी अपने पांव ऊपर समेट कर बैठे रहे बहुत देर। हालांकि जब हम सुबह फिर गए तो लोग स्नान करतेे मिले। स्त्री-पुरूष दोनों ही। सरोवर किनारे कंधों तक लंबाा घेरा किया हुआ था जहां लोग कपड़े बदलते थे नहा कर।
हमलोगों ने बहुत वक्त वहीं बिताया। फिर अपनी अरदास देने मंदिर की बारे बढ़े। बहुत ही लंबी लाइन थी। मगर धीरे-धीरे लाेेग आगे बढ़ते जा रहे थे। सुनहला द्वार , ऊपर छत की नक्काशी और हजारों लोगों की भीड़। हम पंक्तिबद्ध थे। जैसे जैसे मंदिर करीब आता जा रहा था, शुद्ध घी के बने हलवों की सुगंध हमारे नाक में भरती जा रही थी। जल्दी ही हमलोग मंदिर तक पहुंच गए। वहां मत्था टेका। कुछ मिनट के लिए थमे से देखते रहे। मन ही मन प्रार्थना करने के बाद बाहर निकल गए। बाहर निकलते ही प्रसाद ग्रहण किया। तब तक रात के 11 बज चुके थे।
मैं पूरा परिसर घूमना चाहती थी मगर बच्चे थक चुके थे। वापस होटल की ओर चल पड़े। मैंनेे सोचा सुबह निकलने से पहले एक बार और आऊंगी यहां। स्वर्णिम आभा वाले मंदिर का एक बार दिन के उजाले में दर्शन कर लूं।
सुबह उठ नहा कर चलने के लिए तैैयार हुए। तब तक गर्मी हो गई थी। बच्चों ने कहा- आप हो आओ, हम यहीं रूकते हैं। तो हमदाेनों निकल पड़े। सुबह की छवि अलग थी रात की छवि से। बाहर संगमरमर के बने प्रवेश द्वार से उतरकर फिर सामने थे हरमंदिर साहिब के। दर्शन के लिए भक्तों की पंक्ति उतनी ही लंबी दिखी जितनी रात को। कुछ लोग सरोवर में स्नान करते दिखेे तो कुछ लोग एक बेरी वृक्ष के नीचे सिर नवाते दिखे। पता चला इसे भी तीर्थस्थ्ाल माना जाता है। इसे बेर बाबा बुड्ढा के नाम से लोग जानते हैं। कहा जाता है जब स्वर्ण मंदिर बन रहा था तब बाबा जी इसी वृक्ष के नीचे बैैठकर निर्माण कार्य देखते थे।
आगे कई लोग बैठे जूठे बर्तन धो रहे थे। संगमरमर की जमीन पर बहुत लोग सोए हुए थे। थोड़ी दूर पर शबद-गायन हो रहा था। हमने यहां के लंगर के बारे में सुना था। पर कही दिख नहीं रहा था कहां लंगर चलता है। एक बुजूर्ग सिख से पूछा तो उन्होनें बताया उधर जाओ और छको लंगर। हमने उन्हें धन्यवाद दिया और चल पड़े। बीच में कई जगह ठहरे। दर्शन किया, सर झुकाया और बढ़ गए आगे।
लंगर वाले स्थान पर पहुंचे तो वााकई दंग रह गए। जैसा सुना वैसा पाया। हजारों की भीड़, बतर्नों का अंबार। पता लगा लगभग 40 हजार लोग यहां लंगर में खाना खाते हैं। हमने भी प्रसाद स्वरूप वहां चाय पी और निकलने लगे। वहां दीवान हाल पर नजर पड़ी। देखा हजारों लोग सोए हुए हैं।
स्वर्ण मंदिर, एक ऐसी जगह है, जहां आस्था है, पूजा है, प्रार्थना है और बिना भेदभाव के जहां सब प्रवेश पा सकते हैं। कोई भूखा जाए तो वहां खाकर ही निकले। चाहे तो सो ले, वो भी नि:शुल्क। हम वाकई बेहद अभिभूत हुए। कई बार सोचा था दर्शन को, इस बार बाबा के दरबार में हमने भी अपनी उपस्थित दर्ज की और निकल पड़े आगे सफर को।
यात्रा का सचित्र वर्णन बहुत अच्छा लगा।
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