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रास्ते से दिखता खूबसूरत नज़ारा |
दोपहर हो गई थी। हमने होटल छोड़ा और टैक्सी से अमृतसर से निकल पड़े। मैंने सोचा नहीं था पंजाब यू आएंगे और चले भी जाएंगे। जब निकल रहे थे तो ध्यान आया कल बाघा जाते वक्त अभिरूप ने कहा था कि मैंने एक छत पर मुर्गा देखा। मेरा ध्यान गया कि पंजाब में लगभग हर चौथे घरों में ऊपर पानी की टंकी कसी न किसी पक्षी के आकार की बनी हुई है। कहीं मुर्गा, कहीं चिड़ियां, तो कही घड़ा। ये हमारे लिए नई चीज थी।
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छत पर कबूतर के आकार का पानी टंकी |
अमृतसर के बाहर निकलते वक्त रास्ते में कई जगह आम के बगान मिले तो कई जगह लीची के। पर मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित किया लहराते हुए पाॅॅपलर के वृक्षों ने। कतार मेें खड़े झूमते पेड़। कई जगह पर सूखे पुआल के मचान भी बने थे। मैं इनमें खोई आगे बढ़ती जा रही थी।
दोपहर ढलने वाली थी। हमारे वाहन चालक को भूख लगी। एक छोटे से ढाबेनुमा होटल में उसने गाड़ी राेकी। हमने भी सोचा कि पंजाब से बाहर निकलने वाले हैं, यहां की लस्सी पी लें। दूसरा विचार आया कि दाल मखनी भी ट्राई की जाए। आशानुसार स्वादिष्ट थेे दोनों। अब हम तृप्त हो बढ़ें।
पठानकोट जैसे खत्म हुआ, चढ़ाई शुरू हुई। गाड़ी वाले ने एसी बंद कर दिया। हमारी हालत खराब होने लगी पर मजबूरी थी। सारे पहाड़ों पर यही करते हैं लोग। बाहर देखा तो थोड़ा बदला नजर आया। अब सब तरफ पीले अमलतास खड़े थे सड़क के दोनों ओर। बेहद सुंदर और आकर्षक। दूर-दूर तक जैसे जंगल हो अमलतास के।
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पॉपलार के झूमते पेड़ |
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अमलतास के वृक्ष |
मुझे पहाड़ बेहद पसंद है पर चढ़ा़ई में थोड़ी मुश्किल होती है। मगर मंजिल पर पहुंचने पर सफ़़र की थकान का पता नहीं चलता। यही यहां भी हुआ। बनीखेत पहुंचते-पहुंचते ठंढी हवा आने लगी और जैसे धूप में कुम्हलाए पौधे पानी पड़ने पर हरे होने लगते हैं वैसे हम भी हो गए। बनीखेत से सात किलोमीटर की दूरी पर है डलहौजी। हम पहुंचे तो देखा गांधी चौक, सुभाष चौक में बहुत भीड़ नजर आई, तो आगे ऊपर खज्जियार की तरफ होटल के लिए बढ़े।
शाम ढलने लगी थी। अब हम बेहद खूबसूरत सड़क से गुजर रहे थे। एक तरफ खार्इ तो दूसरी तरफ दीवारों में उगे रंग बिरंगे फूल। चाईना रोज से पटे थे दीवार। सुंदर साफ सड़क। पता लगा हम डीपीएस यानी डलहौजी पब्िलक स्कूल क्रास कर रहे हैं। वाकई डलहौजी की आबो हवा किसी को भी मोह लेगी।
थोड़ी ही दूर में हमारी मंजिल यानी होटल सामने था। होटल के बाहरी परिसर में रंग-बिरंगे फूल लगे थे और बच्चों के लिए सबसे आकर्षक चीज ट्री हाउस। अभिरूप तो जैसे पागल हो गया। दौड़कर चढ़ा ऊपर और बैठ गया। बोला मैं यही रहूंगा, मेरे लिए खाने को कुछ यहीं भिजवा दो। सब ओर प्रााकृतिक नजारा। पहाड़ों में रात देर से होती है, सो कमरे में कोई नहीं गया। सब बाहर बैठे रहे। हल्की ठंढ़, चीड़ देवदार के घने जंगल और गरम चाय। इससे बेहतर और क्या हो सकता है।
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हमारा होटल, जिसमे हमने पांच दिन बिताया |
जिस अनूठे सौंदर्य से रीझकर लार्ड डलहौजी यहां रहे और उनके नाम से ही इस जगह को जाना गया, वह वाकई मनामोहने वाला है। धौलदार पर्वत श्र्ंखला के साए में पांच पहाड़ियों पर बसा शहर चीड़ और देवदार के साए में पल पल मन मोहता है। सफ़र की थकान चुटकियों में उड़ गई।
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ट्री हाउस पर देर शाम खड़े अभिरूप और आदर्श |
1853 में अंग्रेजो ने यहां की जलवायु से प्रभावित होकर पोर्टिरन, कठलोश, टेहरा, बकरोटा और बलून पहाड़ियों को चंबा के राजा से खरीद लिया था। इसके बाद ही यहां का नाम डलहौजी पड़ा। हम जहां ठहरे थे वो स्थान बकरोटा पहाड़ पर है। हम देर रात तक बैठे रहे। पहाड़ों पर ढलती शाम और उगती रौशनी के बीच हल्की सिहरन को महसूस करते डिनर के बाद चले गए सोने।
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सुबह उठकर झूला झूलते बच्चे |
सुबह ब्रेकफास्ट के बाद हमने लोकल घूमने का प्लान किया। थकना कोई नहीं चाहता था। नीचे से गाड़ी बुलवाई और सबसे पहले पहुंचे पंजपुला। रास्ते में सतधारा मिला। लोग बताते हैं कि पहले जल की सात धाराएं यहां झरने के रूप में बहती थीं। जिनमें औषधीय गुण थे। अब तो बूंदे टपकती हैं। उसे पत्तों के द्वारा सात धारों में बांट दिया गया।
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सतधारा |
हल्की चढ़ाई के बाद ऊपर पहुंचे। पिकनिक स्पाट की तरह लगी वो जगह। कहते हैं यहां पहले पांच पुल हुआ करते थे। यहां से एक मार्ग धर्मशाला ही ओर जाता था। यहां स्वतंत्रता सेनानी अजीत सिंह की समाधि भी है।
सुभाष चंद्र बोस के सहयोगी रह चुके सरदार अजीत सिंह शहीद भगत सिंह के चाचा थे। जिस दिन देश स्वतंत्र हुआ उसी दिन यहां उनका देहांत हो गया था। पर्यटक जरूर जाते हैं यहां। वैसे पंजपुला है पिकनिक स्थल ही।
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झरने की ओर जाते हम तीनों |
हमें वहां कई परिवार मिले जो पिकनिक मना रहे थे। हम झरने के समीप जाकर बैठ गए। बहुत पतला सा झरना था और नीचे थोड़ा पानी का जमाव। जब उसमेेे पैर डाले तो इतना ठंढ़ा पानी था कि लगा पांव जम जाएंगे।
जून के महीने में चमकती धूप थी मगर हवा ठंढ़ी बह रही थी। हम ऊपर ही थे कि काले बादल छा गए। लगा अब बारिश हुई तो हम फंसे रह जाएंगे। मगर कुछ बूंदे आई और बारिश वाले बादल चले गए। सब तरफ हरियाली, सीढ़ीदार खेत और उन पर बने घर मन मोह रहे थे। नीचे छोटा सा बाजार लगा था। बच्चों के मनाेरंजन की कई चीजेंं थी। पर हम वहां रूके नहीं।
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खूबसरत दृश्य |
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मैं और अभिरूप, खूब ठंढ़ा पानी |
ड्राइवर ने बताया कि अब हम बोटिंग के लिए जाएंगे चमेरा लेक। बोटिंग की बात से अभिरूप बेहद उत्साहिए हुए और जल्दी मचाने लगे। अब हम एक बार फिर गांधी चौक से होते हुए नीचे उतरने लगे। जब बनीखेत पहुंचे तो पता लगा कि हम उसी रास्ते में हैं जहां से कल आए थे। ड्राइवर करनाल सिंह ने बताया कि चमेरा लेक 30 किलोमीटर की दूरी पर है और चम्बा जाने के रास्ते में पड़ता है।
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सड़क से दिखता बर्फीला पहाड़ |
मेरा बिल्कुल मन नहीं था सफ़र करने का। हालांंकि रास्ता बहुत खूबसूरत था, पर मैंने गाड़ी वापस करवाई। कहा..हमें मॉल रोड ले जाकर छोड़ दो। वहीं घूमेंगे। ड्राइवर ने हमें ठीक गांंधी चौक पर लाकर छोड़ा। हम मॉल रोड में टहलने लगे। दोनों तरफ दुकाने थी। कपड़े, नकली गहने, खिलौने और खाने-पीने के कई दुकानें। हमने साॅफ्टी ली और टहलते हुए आगे जाने लगे। बहुत जल्दी ही भीड़-भाड़ खत्म हो गयी। उसी रास्ते से आगे जाने पर जंदरी घाट है जहां से पहाड़ के बड़े खूबसूरत नजारे दिखते हैं।
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मॉलरोड के बाहर भीड़ |
अभिरूप को एक खरगोश वाला नजर आया तो वह गोद में खरगोश उठाने को मचल गया। उसने तस्वीरें भी खिंचवाई। उसके 20 रूपये लिए खरगोश वाले ने। मालरोड पर सड़क किनारे बैठने के लिए बेंच लगे थे, जो हमेेशा भरे ही मिलते हैं।
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भीड़भाड़ से बेफिक्र बेंच पर सोता स्थानीय |
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खरगोश को थामे हुए अभिरूप |
बाहर जाते वक्त ध्यान गया कि एक आदमी अपनी टोकरी जमाए बैठा है और जड़ी-बूटियों वाली दर्द की दवा बेच रहा है। काफी लोग घेरे हुए थे उसे। बाहर सामने ही सेंट जोसेफ चर्च है जिसकी स्थापना 1863 में हुई थी।
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सेंट जोसेफ चर्च |
बगल मे तिब्बती बाजार भी था। वहां बहुत तिब्बती रहते हैं।
तिब्बत से पलायन के बाद धर्मशाला से पहले दलाईलामा कुछ समय डलहौजी में भी रुके थे। तब से कई तिब्बती परिवार यहां बस गए। लोगों ने घरों को होटलों में तब्दील कर दिया है। हमने सबके एक चक्कर लगाए और वापस होटल की ओर चल दिए। रात होने वाली थी।
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अपने मकान के बाहर बैठी वृद्ध महिला |
अब हम फिर होटल के लिए खज्जियार वाले रास्ते पर डलहौजी पब्िलक स्कूल वाले रास्ते से गुजरने वाले थे। वहां एक मोड़ पर हवाई जहाज, टैंक और जीप रखे हुए थे। यह सब अभिरूप की दिलचस्पी के सामान थे सो हमेंं वहां रूकना पड़ा। कई तस्वीरें ली। फिर पहुंचे अस्थाई ठिकाने यानी अपने होटल में।
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अभिरूप का अंदाज |
क्रमश:.............
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच 16-06-2016 को चर्चा - 2375 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति सुरैया और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteAchchha laga aapke sath Dalhousie ki sair karna!
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