Thursday, May 26, 2016

कभी कभी



कभी कभी
मैं वैसी लहर बन जाती हूं
जो तटों से टकराकर
समुद्र में लौटना नहीं चाहती
जैसे
इतने ही जीवन की ख्‍वाहि‍श हो

.....................

तुम पर
एतबार करने को जब
मन चाहता है
सोचती हूं सौंप दूं सारी दुनि‍या तुमको
और मैं
वि‍लीन हो जाऊं तुममेंं
जब
अवि‍श्‍वास की पतली पगड़डि‍यों पर
कदम लड़खडा़ते हैं
गि‍रने को होती हूं अंतहीन खाई में
सोचती हूं
कि‍सी मैदानी इलाके में जा बसूं
जहां
कभी पगड़डी पर न चलना पड़े मुझको

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ज्‍वार-भाटे सा होता है
रि‍श्‍ता प्‍यार का
कभी उफान, कभी शांत खामोश
मगर
हर हाल में दर्द होता है
चाहे जि‍तना भी हो कि‍सी से प्‍यार

7 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (27-05-2016) को "कहाँ गये मन के कोमल भाव" (चर्चा अंक-2355) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

जमशेद आज़मी said...

बहुत ही सुंदर और प्रभावी रचना की प्रस्‍तुति। अच्‍छी रचना के लिए अाापको बहुत बहुत बधाई।

dr.mahendrag said...

ज्‍वार-भाटे सा होता है
रि‍श्‍ता प्‍यार का
कभी उफान, कभी शांत खामोश
मगर
हर हाल में दर्द होता है
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति , रश्मिजी

रश्मि शर्मा said...

Dhnyawad aapka

रश्मि शर्मा said...

Shukriya

रश्मि शर्मा said...

Shukriya

Kuldeep Saini said...

Wah