कभी कभी
मैं वैसी लहर बन जाती हूं
जो तटों से टकराकर
समुद्र में लौटना नहीं चाहती
जैसे
इतने ही जीवन की ख्वाहिश हो
.....................
तुम पर
एतबार करने को जब
मन चाहता है
सोचती हूं सौंप दूं सारी दुनिया तुमको
और मैं
विलीन हो जाऊं तुममेंं
जब
अविश्वास की पतली पगड़डियों पर
कदम लड़खडा़ते हैं
गिरने को होती हूं अंतहीन खाई में
सोचती हूं
किसी मैदानी इलाके में जा बसूं
जहां
कभी पगड़डी पर न चलना पड़े मुझको
.........................
ज्वार-भाटे सा होता है
रिश्ता प्यार का
कभी उफान, कभी शांत खामोश
मगर
हर हाल में दर्द होता है
चाहे जितना भी हो किसी से प्यार
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (27-05-2016) को "कहाँ गये मन के कोमल भाव" (चर्चा अंक-2355) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Dhnyawad aapka
Deleteबहुत ही सुंदर और प्रभावी रचना की प्रस्तुति। अच्छी रचना के लिए अाापको बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteShukriya
Deleteज्वार-भाटे सा होता है
ReplyDeleteरिश्ता प्यार का
कभी उफान, कभी शांत खामोश
मगर
हर हाल में दर्द होता है
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति , रश्मिजी
Shukriya
DeleteWah
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