जाना ही है तो पूछते क्यों हो
चले जाओ
साथ अपने मेरे शहर का मौसम भी
ले जाना
ले जाना
न कहूंगी याद रखना मुझको
लौटो कभी तो ये रूत
साथ लेकर आना
तपती गर्मी ने खूब जलाया हृदय
पर बारिश ने गुलों को निखार दिया है
वो बरसा
तो लगा एक बार फिर तूने प्यार किया है
पर बारिश ने गुलों को निखार दिया है
वो बरसा
तो लगा एक बार फिर तूने प्यार किया है
गुलमोहर की छांव में
प्यार के परिंदे फिर चहकेंगे
भर जाएगा फूलों से जब अंगना
हम इनसे तुम्हारी बातें किया करेंगे....
5 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (04-05-2016) को "सुलगता सवेरा-पिघलती शाम" (चर्चा अंक-2332) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
गुलमोहर के इन फूलों के साथ जैसे शब्द अठखेलियाँ कर रहे हों ...
Aapka dhnyawad
तपती धूप में गुलमोहर का इठलाता सौन्दर्य देख आ.हज़ारी प्रसाद जैसे प्रकाण्ड पंडितों का मन भी डोल जाता है और उनकी लेखनी से ललित निबंध का अवतरण होने लगता है .
गुलमोहर और अमलतास के वृक्ष धूपभरी दुपहरी में भी वातावरण में रंग बिखेर देते हैं.
बहुत सुन्दर गुलमोहरी मुस्कान लिए मनोरम रचना
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