चैत की तपती दोपहरी है
बागीचे में
आम गाछ के नीचे
दो देगची हड़िया और
चबेना ले तेतरी बैठी है
अपनी छोटी सी हाट लगाए
संग अपने
चचेरी ननद को भी है बिठाए
अंकुराया बूट, सीझा अंडा
साथ में
चने-आलू का मसालेदार चखना
पचास पैसे कटोरा हड़िया
नाप कर पिलाती है तेतरी
ना-ना, नशा नहीं बेचती
वह हड़िया बेचती है
चावल से बनता है
गर्मियों में पेट ठंढ़ा रखता है
इसलिए तो काम करे वाला मनुआ सब
पीता है इसको
भरी दोपहरी यहां अमवा की छांव में
सुस्ताता है
ये सब कहता है
वो बूढ़ा
जो लाठी टेकता आता है
और इन औरतों के बगल में बैठ जाता है
हर दिन
तेतरी समझती है
बूढ़े का मन नहीं लगता घर में
आंखें भी कम सूझती हैं
किसी काम का नहीं
घर से दुरदुराया जाता है
इसलिए यहां आता है
मगर तेतरी जरा घबराई हुई है
जब से सुना है
बिहार में शराबबंदी हो गई
अनचिन्हे लोगों को देख
मुंह छुपा, फिर
दबी जुबान से पूछती है बूढे से
आजा
हमारा हड़िया तो बंद नहीं कराएगी
सरकार
ई कोई चुलैइया थोड़ी है...
पोपला मुंह वाला 'आजा' हंसता है
अरी तेतरी
ई बिहार नहीं झारखंड है
और हड़िया कौनो शराब नहीं।
6 comments:
आपने लिखा...
कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 08/04/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
अंक 266 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।
वाह , बेहतरीन शब्द चित्रण !!
मंगलकामनाएं !
वाह , बेहतरीन शब्द चित्रण !!
मंगलकामनाएं !
जब केन्दपोसी में रहने का मौका मिला तो हडिया से परिचित हुई .... स्थानीय कर्मचारी 12 बजे के बाद छुट्टी कर पी मस्त हो जाते थे .... उनसे काम 12 बजे तक ही लिया जा सकता था ....
उम्दा लेखन है आपका
बहुत सुंदर शब्द चित्रण...
बेहतरीन उम्दा लेखन ।
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