Monday, April 11, 2016

पटवों की हवेली : रांची से रेत के शहर जैसलमेर तक -3

जैसलमेर कि‍ले के बाहर है पटवों की हवेली। जैसलमेर के स्वर्णिम इतिहास का जीवित दस्तावेज यह खूबसूरत इमारत, यहाँ निर्मित पहली हवेली है , जो वास्तव में पाँच इमारतों का एक संकुल है। 1805 में जैसलमेर के बड़े व्‍यापारी गुमानचंद पटवा ने अपने पाँच पुत्रों के लिए अलग-अलग हवेलियों का निर्माण कराया, जो कहते हैं कि लगभग पचास सालों में पूर्ण हुआ। उस वक़्त इन हवेलियों की लागत दस लाख रूपये आंकी गई थी ,आज तो इनके मूल्य का अंदाज़ लगाना भी जरा मुश्किल काम है। 



 इन्हीं पांच इमारतों को सामूहिक रूप से पटवों की हवेली कहा जाता है ।
 मूलतः जैन परिवार के वंशज सेठ गुमानचंद वास्तव में बाफना गोत्र के थे। इन का परंपरागत कार्य पटवाई का था जिसका अर्थ है “गूंथना”। इस परिवार में सोने और चांदी के तारों से जरी का काम होता था।  इस में इनकी कुशलता से प्रभावित होकर जैसलमेर नरेश ने इनको पटवा की उपाधि दी थी। उनका सिंध-बलोचिस्तानकोचीन एवं पश्चिम एशिया के देशों में व्यापार था। 
जरी के परम्परागत काम के अलावा इमारती लकड़ी , मसाले और अफीम के कारोबार से इन सेठों ने अकूत धन कमाया था। कलाविद् एवं कलाप्रिय होने के कारण उन्होने अपनी मनोभावना को भवनों और मंदिरों के निर्माण में अभिव्यक्त किया। पटवों की हवेलियाँ भवन निर्माण के क्षेत्र में अनूठा एवं अग्रगामी प्रयास है।


पटवों की हवेली, जि‍सके सामने छोटा सा बाजार लगता है 

जैसलमेर में पटवों की हवेलीके अलावा दीवान सालि‍म सिंह की हवेली व दीवान नथमल की हवेली भी विश्वप्रसिद्ध हैं । हम इनमें से सि‍र्फ पटवों और नथमल की हवेली ही देख पाए। इसके बाद हमें जैसलमेर का कि‍ला देखने जाना था। पटवों की हवेली घूमते-घूमते इतना थक गए कि‍ छोटे बेटे अभि‍रूप ने चलने से इंकार कर दि‍या। उसकी तबि‍यत भी खराब थी।


राजा-रानी की मूर्तियां 
बहरहाल....पटवों की हवेली इतनी खूबसूरत है कि‍ हम मुग्‍ध होकर रह गए। सभी हवेलि‍यां स्‍थानीय पीले पत्‍थरों से बनी हुई है। इन हवेलियों का स्‍थापत्‍य इस्लामिक और हिन्दुस्तानी कला का बेजोड़ ‘फ्यूज़न’ है ,बेहद खूबसूरत और स्‍थापत्‍य कला का बेहतरीन उदाहरण। हमें तो एकबारगी ये लगा कि‍ यह लकड़ि‍यों पर नक्‍काशी का कार्य है। मगर नहीं, यह धरती को भेद कर निकाले गए प्रस्तर-खंडों में जान फूंकने जैसा परिश्रम है।


हवेली के अंदर सुरक्षि‍त रखा श्रृंगार कक्ष 

पटवों  की हवेली तक जाने के लि‍ए हमें एक बेहद संकरे रास्‍ते से गुजरना पड़ा। गेट के अंदर जाते ही काफी भीड़ थी। हमें गाइड घेर लि‍या। पता चला कि‍ पांच में से दो हवेली को सरकार ने म्‍यूजि‍यम बना दि‍या है। दो में लोग रहते हैं और एक बेहद जर्जर अवस्‍था में है। सरकार उसे बचाने के प्रयास में लगी हुई है। छि‍यासठ झरोखों से युक्‍त यह एक सात मंजि‍ली इमारत है। छत लकड़ी की है और इस पर सोने की कलम का काम है।  जब हम सीढ़ी से चढ कर पहली मंजि‍ल पर पहुंचे तो शीश महल सा आभास हुआ। राजस्‍थानी चि‍त्रकला का अद़भुत नमूना नजर आया हमें। कांच के जडाऊं काम देख हमारी आंखें चौंधि‍यां सी गई।


दीवान कक्ष, सामने चौसर बि‍छा है
अंदर वि‍भि‍न्‍न आकार और वजन के बटखरेमूर्ति‍यांकांच के टेबल - कुर्सीकैमरानक्‍काशीदार कि‍वाड़ेभि‍न्‍न- भि‍न्‍न प्रकार के तालेबस हम देखते ही रहे।
अब आई झरोखों की बारी। वाकई मंत्रमुग्‍ध हुए हम। युवाओं के जोड़े हाथ पकड़कर तस्‍वीर खि‍चा रहे थे। हमने भी कोशि‍श की। मगर भीड़ इतनी थी कि‍ अकेले तस्वीर ले पाना  संभव नहीं हो पाया। 


नक्‍काशीदार झरोखे, जहां हर पर्यटक ठहर जाता है तस्‍वीर के लि‍ए

आगे बढ़ने पर नक्काशीदार बक्‍सों में रखे जेवरवस्‍त्र उस वक़्त चलन में रहे सिक्के , कलात्मक मगर बेहद मजबूत इस्पात के ताले, खाना पकाने के बर्तनवि‍भि‍न्‍न दुर्लभ वाद्ययंत्र । वहाँ की रसोई में काम आनेवाली दो चीज़ों ने वाकई मुझे हैरत में डाल दिया वो थीं उस ज़माने का फ्रिज और आटाचक्की इसके अलावा भी ढेरों चीज़ें जो पहले हमने कभी नहीं देखी कित‍नी चीजें बताई जाए आपको। बस यही कहा जा सकता है कि‍ जरूर जाएं और खुद से देखें । दीवानखाने पर बि‍छे चौसर और शतरंजकमरे की खूबसूरत नक्‍काशी देख लगता है जैसे देखते रहें।


आकर्षक जेवर का बक्‍सा 

बीता कल याद दि‍लाता कैमरा
बहुत देर तक अंदर घूमने के बाद हम बेहद तंग सीढ़ियों से होते हुए हवेली की छत पर आ पहुँचे  जहाँ से जैसलमेर शहर लगभग पूरा दिखाई देता है और सामने कि‍ले की दीवार। यहाँ आकर इत्मीनान से हमने कुछ फोटोग्राफ्स लिए ,बच्चो ने कोल्ड ड्रिंक्स का लुत्फ़ उठाया ,मगर अभिरूप को यहाँ आकर पिज़्ज़ा की चाह ने कुछ इस कदर बैचैन किया कि हम बहुत देर यहाँ नहीं रुक पाए । हम कुछ समय यहाँ व्यतीत कर और अपने को रिफ्रेश कर पाने अगले पड़ाव यानी सोनार –किला की ओर चल पड़े। 

अगला पड़ाव जैसलमेर का कि‍ला... ................क्रमश:


4 comments:

SARANSH said...

Achchha vivran.achchhi Jankari.chitra bhi khoobsoorat.

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14 - 03 - 2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2312 में दिया जाएगा
धन्यवाद

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " जलियाँवाला बाग़ नरसंहार के ९७ वीं बरसी - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Sawroop Bhargav said...

अच्छा है
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