किले के अंदर मंदिर, जहां राजा के वंशज आज भी पूजा करते हैं। |
बाटी तो अपने यहां के लिट्टी जैसी ही लगी। हां, हम यहां चोखा लेते हैं और वो लोग दाल। बेसन-गट्टे की सब्जी भी स्वादिष्ट थी, ताज़े दही का स्वाद भी उसमें आ रहा था ।
किले के बाहर का दृश्य |
भोजन उपरांत हम सीधे सोनार किले की ओर बढ़े। अब तक भगवान भास्कर पश्चिम की ओर बढ़ चले थे । कैब वाले लच्छू महाराज यानी लक्ष्मण सिंह ने हमें पार्किंग के पास छोड़ दिया और कहा कि वापस आकर यहीं मिलना। हमें काफी दूर पैदल चलना पड़ा। हम श्रीरामदेव मंदिर वाले रास्ते से आगे बढ़े। ऊंची प्राचीर देख बड़ा अच्छा लग रहा था। गेट के बाहर कुछ राजस्थानी महिलाएं आभूषणों की दुकान सजाए बैठी थी। मन अटक जाता है विभिन्न आभूषणों को देखकर। खुद वहां की महिलाएं भी खूब गहने पहनती हैं। तो पूरे रास्ते सड़क के दोनों ओर दुकान सजे नजर आए। हस्तशिल्प के, कपड़ों और बैग के।
एक दुकान के बाहर हमें बैग पसंद आया। हमने सुन रखा था कि यहां ऊंट के चमड़े के बने बैग और चप्पल मिलते हैं। मैंने पूछा दुकान वाले से कि क्या वाकई ये बैग ऊंट के चमडे़ का बना है। उसने जवाब दिया कि लोग बेचने के लिए ये बोल देते हैं पर ये सच नहीं है। ये ऊंट के चमडे़ का नहीं है। अच्छा लगा...रेगिस्तान के जहाज की सवारी ही करते हैं लोग यहां, यही करते रहें।
किले की छत से दिखता सोने सा शहर |
किले के ऊंची -ऊंची प्राचीरों को हम गर्दन उठाकर देखते आगे बढ़े चले जा रहे थे। जहां से किले की सीढ़ियां ऊपर जाती थी वहां से ठीक बाहर एक बेहद खूबसूरत नक्कशीदार मंदिर मिला। पीले पत्थरों पर खूबसूरत नक्काशी। सोने सी दमक।
किले के अंदर खूबसूरत नक्काशी |
तस्वीर में दिखता आधा किला-आधा शहर |
मुख्य द्वार को अखैपोल कहा जाता है जो महारावल अखैसिंह ने बाद में बनवाया था। किले के प्राकार का घेरा पांच किलोमीटर है। तीस फीट ऊंची दीवार वाले किले में 99 प्राचीर हैं। कहते हैं विश्व में दो ही किले ‘लाइव फोर्ट्स’ की श्रेणी में रखे जाते हैं यानि ऐसे किले जिनमें अभी भी आबादी वास करती है ,संयोग से दोनों ही राजस्थान में हैं एक यही सोनार किला , दूसरा चित्तौड़गढ़ का किला। आज इस किले में एक पूरा शहर बसा है। यहां की आबादी करीब 5000, छोटे-बड़े 30 से ज्यादा होटल, एक दर्जन रेस्तरां और लगभग 100 से ज्यादा दुकाने हैं। रेगिस्तान के इस किले के भीतर शहर की एक चौथाई आबादी रहती है , जिसके लिए यहाँ बहुत से कुँए भी बने हुए हैं, मुगल कालीन शैली जिसमें किलों में बाग़-बगीचे , नहर ,बावड़ियां , फव्वारे इत्यादि होते हैं , इनका यहाँ पूर्णतया अभाव है। यह राजपूताना स्थापत्य का बेजोड़ उदाहरण है जिसमें तडक भडक से ज्यादा सुरक्षा और प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवित रहने के सरंजाम जुटाए जाते थे ।
दीवार पर लगे तीर को उत्सुकतावश देखते बच्चे |
किले की आबादी पार कर हम भीतर से होते हुए उपर की ओर गए। अंदर जाते ही दीवारों पर लगे, राईफल, भाले, तीर-धनुष देख बच्चे उत्साहित हो गए और छू-छूकर देखने लगे। अंदर वो कक्ष भी दिखा जिसमें राजा बैठ कर मंत्रणा करते थे। ऊपर छत पर जाने पर वास्तव में स्वर्ण नगरी देखने को मिली। बाहरी दीवारों जिसे कंगूरा कहा जाता है, उस पर प्रस्तर के बड़े-बड़े हजारों गोले और बेलन रखे हुए थे। इन गोलों का इस्तेमाल युद्ध के दौरान किसी बाहरी आक्रमण को रोकने के लिए प्रयुक्त किया जाता होगा। यहां दोहरी प्राचीर है जिसके भीतर 2.4 मीटर का अंतर है, जिसे मोरी के नाम से जाना जाता है। किले की सुरक्षा के लिए यहां प्रहरी घूमा करते थे।
कंगूरे पर रखे हजारों गोले |
प्राचीर की दीवार पर श्रीकृष्ण की वंशावली भी लगी हुई थी। पता लगा कि जैसलमेर के भूतपूर्व शासकों के पूर्वज जो अपने को भगवान कृष्ण के वंशज मानते हैं, संभवतः छठी शताब्दी में जैसलमेर के भूभाग पर आ बसे थे। इस जिले में यादवों के वंशज भाटी राजपूतों की प्रथम राजधानी तनोट, दूसरी लौद्रवा तथा तीसरी जैसलमेर में रही। वहां बने झरोखे बेहद आकर्षक हैं। एक पंक्ति में सजाकर काष्ठ प्रतिमाएं भी रखी हुई थी। काष्ठ के दरवाजे पर शानदार नक्काशी की गई है।
लगभग हर घरों में होटल हो जैसे, ऐसा लगा देखकर |
ऊपर छत से सारा शहर नजर आता है . भव्य, पीली रौशनी में नहाया हुआ। वहां आस-पास के घरों को देखकर ऐसा महसूस हुआ जैसे उन्हें होटलों में तब्दील कर दिया गया है। छत से ही हमने देखी सालिमसिंह की हवेली, हमारे लच्छू महाराज ने कहा था कि दुष्ट व्यक्ति की हवेली क्या देखने जाएंगे, यहीं से देख लीजिये और जिस तोप के पास आप खड़ी हैं इसी तोप से गोला दाग कर ,यहीं से महाराजा ने उस ज़ालिम की हवेली को गिरा दिया था । सालिमसिंह की कहानी मैं बाद में बताऊंगी। फिलहाल तो जब हम छत पर पहंचे तो दूर दिख रहे पंक्तियों में लगे विंड मिल्स को देखकर बेहद रोमांचित हुए। बच्चों ने यहाँ खूब फोटोग्राफी की और नयनाभिराम दृश्यावली को कैमरा में कैद कर लिया। इस जगह पर खड़े हो कर हम बहुत देर तक बहती हवाओं का आनंद लेते रहे। हालांकि भीड़ बेहद से ज्यादा थी किले की छत पर।
खूबसूरत विंड मिल्स |
वापस उतरते हुए हमलोगों ने म्यूजियम देखा और पूरे किले का एक कृत्रिम मॉडल भी। दमदम पर तोपें रखी हैं जो गुजरे वक्त की शौर्य गाथा का बयान कर रही है। बच्चे बेहद खुश हुए तोपों को देखकर। प्राचीर का किनारा बिल्कुल खुला हुआ था और नीचे सड़क पर राहगीर नजर आ रहे थे। प्राचीर की दीवारों पर एक पंक्ति में कबूतर बैठे थे जैसे सभा कर रहे हों।
किले के बाहर का नजारा |
बाहर निकलते वक्त हमने फिर देखा मुड़कर, शाम की पीली रौशनी पूरे किले पर सुनहली आभा बिखेर रही थी। थोड़ी देर में महसूस किया कि कैसे ढलती शाम अपना पल्लू , जवान होती रात के आँचल से छुड़ाकर भागी जा रही है अद्भुत दृश्य । सारे दिन की थकान के बाद कुछ देर आराम की जरूरत महसूस हुई तो हम वापस होटल की ओर चल पड़े।
शाम ही हुई थी, मगर वैसा कुछ और नजर नहीं आ रहा था कि हम घूमें। हमारा एक दिन और जैसलमेर रूकने का प्लान था। पर लगा कि बाकी चीजें कल देखी जा सकती है तो हमने बच्चों को होटल में छोडा़ और शहर घूमने निकल गए।
खूबसूरत नक्काशीदार भवन |
शाम ही हुई थी, मगर वैसा कुछ और नजर नहीं आ रहा था कि हम घूमें। हमारा एक दिन और जैसलमेर रूकने का प्लान था। पर लगा कि बाकी चीजें कल देखी जा सकती है तो हमने बच्चों को होटल में छोडा़ और शहर घूमने निकल गए।
पास ही रेलवे स्टेशन था। हमने वहां जाकर चाय पी। फिर शहर की ओर निकले। बहुत छोटा सा शहर, बहुधा सुनसान पड़ा शहर , जैसे सारा शहर सोया हुआ हो। दिन में स्वर्णिम आभा से दमकता , चहकता शहर रात में एक बीमार सी पीली मद्दम रौशनी में लिपटा हुआ दूर किला भी पीले वस्त्र ओढ़े एक वृद्ध हठयोगी सा प्रतीत हुआ । कभी सुनी राजेंद्र –नीना मेहता की ग़ज़ल की पंक्तियाँ कानों में गूंजने लगीं, जो ताजमहल के लिए कही गई थीं....
तन्हाई है जागी जागी सी , माहौल है सोया सोया हुआ ।
जैसे कि खुद ये ताजमहल खाबों में तुम्हारे खोया हुआ।
रात में कई जगह हैंडीक्राफ़ट की दुकानें खुली हुई थीं । हमने एक चक्कर वहां का लगाया। एक दुकान में हम घुसे। सेल्समैन के बोलने के लहजे को देखकर लगा की ये हमारी तरफ का होगा। विश्वास नहीं हुआ इतनी दूर सीमान्त प्रदेश में कोई व्यक्ति यहाँ आकर दुकान में काम करता होगा। परन्तु पता लगा कि वह व्यक्ति देवघर (झारखंड ) का ही है। कुछ आभूषण और कपड़े खरीदे, यादगारी के लिए। फिर पैदल टहलने लगे तो वापस किले के पास पहुंच गए। मगर अब रात हो गई थी। सोनार किला का सौंदर्य धूप में ही है, जैसे रेत का। घूमते-फिरते हम बाजार निकले। वहां बड़े से लोहे की कड़ाही में दूध खौलाया जा रहा था, मलाईदार दूध। हमारा मन हो आया कि आज यही पिया जाए। वाकई स्वादिष्ट लगा इलायची ,पिस्ते में उबाला हुआ गाढ़ा दूध,केवड़े की महक समेटे ।
लौटकर बच्चों को लिया और डिनर के लिए निकले। एक झोपड़ीनुमा ढाबे जैसी जगह थी। वहां अंदर अच्छा इंतजाम था। कोने पर छोटे-छोटे बच्चे साज के साथ ऊंची तान में मांड सुना रहे थे - केसरिया बालम.....
आओ नी , पधारो जी म्हारे देस....
ये बच्चे हारमोनियम ,और ढोलक के साथ साथ ताल देने के लिए करताल और खड़ताल नमक वाध्य यंत्रों का भी प्रयोग कर रहे थे। ये लकड़ी के दो या चार लम्बे टुकड़ों से बने होते हैं और एक या दोनों हाथों की अँगुलियों व अंगूठे के बीच फंसा कर बजाए जाते हैं इनसे बहुत कर्णप्रिय ‘कट –कट’ की मधुर ताल निकलती है जो सुनने में बहुत भली लगती है अभिरूप ने उन बच्चो से ले कर बजने की कोशिश की परन्तु उसे हाथ में साध कर पकड़ना ही मुश्किल काम था बजाना तो बहुत दूर। उन बच्चों से बात करने पर पता लगा कि ये मांगणीयार लंगा जाति के हैं , जिनका यहाँ के लोकगीत गायकी पर एकाधिकार सा है।
ढलती शाम में शहर एक नजर.. |
हमने कुछ देर आनंद लिया। वो बच्चे जगह बदल-बदलकर गा रहे थे। पर्यटकों के पास जाकर। समझ आया कि वो खास फरमाईश पर गाने सुना रहे हैं। हमने भोजन और गीतों का आनंद लिया और वापस होटल में।
अब सुबह हमें बड़ा बाग और कुलधरा देखने के बाद शाम से पहले सम ढाणी पहुंचना था। अब वहां की बुकिंग थी हमारी।
3 comments:
सोनार किले के बारें में बहुत अच्छी जानकारी और सुन्दर फोटो प्रस्तुति हेतु धन्यवाद
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21 - 04 - 2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2319 में दिया जाएगा
धन्यवाद
yatra ka sundar shabd chitra
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