Tuesday, March 8, 2016

सोच बदलेगी एक दि‍न..पर वक्‍त लगेगा...



आज अंतरराष्‍ट्रीय महि‍ला दि‍वस है। अखबार भरे पड़े हैं उन महि‍लाओं की गाथा से जि‍न्‍होंने समाज में अपना नाम कि‍या। इसमें गरीब और अमीर दोनों श्रेणी की महि‍लाएं है। कुछ ने समाज की पुरातन मान्‍यताओं के खि‍लाफ खुद को खड़ा और और आदर्श स्‍थापि‍त कि‍या, तो कुछ ने ऐसा कार्य कि‍या जो स्‍त्री के लि‍ए सहज और सरल नहीं माना जा सकता था, और आज वो सब एक मुकाम पर हैं।

मेरा उन सारी औरतों को सलाम, जि‍न्‍होंने लीक से हटकर कुछ कि‍या और अपना, परि‍वार और देश का नाम रौशन कि‍या। मगर सब ऐसे नहीं होते। यह मात्र कुछ प्रति‍शत है, जि‍से हम प्रेरणा की तरह अपने और आसपास के जीवन में उतार सकते हैं, मगर यह आंकड़ा बहुत छोटा है, ऊंगलि‍यों में गि‍नने लायक।
यह अखबार वाले भी जानते हैं कि‍ ऐसे आंकड़े इकट्ठे करने के लि‍ए उनके रि‍पोर्टरों को भटकना पड़ता है। गली-मुहल्‍लों में घुमकर जानकारी एकत्र करनी पड़ती है तब जाकर वो दो या चार पृष्‍ठ का परि‍शि‍ष्‍ट नि‍काल पाते हैं। जो औरतें शीर्ष्‍ पर हैं, चाहे वो खेल जगत हो या उ़द्योग, राजनीति‍, वि‍ज्ञान हो या साहि‍त्‍य। सभी क्षेत्र में महि‍लाएं हैं मगर जि‍तनी होनी चाहि‍ए उससे बेहद कम।

आज का मौसम अच्‍छा है। बसंत है, कोयल की कूक सुनाई दे रही है, उस पर महि‍ला दि‍वस। बधाइयों का तांता लगा है। फेसबुक, व्‍हाटसएप, फोन और हां...घर में भी। जाहि‍र तौर तर आज खुश होना चाहि‍ए मुझे। मगर मन बेहद खि‍न्‍न है।

बात कल ही की है। एक परि‍चि‍त महि‍ला, जि‍सकी एक बेहद प्‍यारी सी बेटी है, तकरीबन 5-6 वर्ष की। प्‍यार करने वाला इंजीनि‍यर पति‍ है। अच्‍छे सास-श्‍वसुर हैं। वो परेशान हाल मि‍ली। बताया, उसे गर्भ है। ससुराल वाले कहते हैं, उन्‍हें एक बेटा चाहि‍ए, हर हाल में। पति‍ कहता है, अगर दूसरा बेटा हो तो ठीक, अगर बेटी हुई तो वह उसकी जि‍म्‍मेदारी नहीं उठा सकता। क्‍यों नहीं उठा सकते। क्‍या बेटी बोझ है। जब बेटा होगा तो वही बाप सक्षम होगा हर उत्‍तरदायि‍त्‍व नि‍भाने को। बेटी हुई तो सीधा इंकार।

 चूंकि‍ लड़की पढ़ी-लि‍खी है, सब चीजें समझती है। मगर पति‍ को छोड़ नहीं सकती और संतान का दायि‍त्‍व अकेले उठा नहीं सकती। नतीजा...मेरे लाख समझाने के बावजूद उसने कहा कि‍ वह इस संतान को आने नहीं देगी दुनि‍या में। बहुत तरीके हैं आजकल।मुझे पता है, कल शि‍वरात्रि‍ के दि‍न, जो शि‍व अर्धनारीश्‍वर के प्रतीक हैं, उनके ब्‍याह के दि‍न एक नारी ने अपने शरीर से एक नन्‍हें जीव को मार डाला होगा।

कि‍सलि‍ए...वह एक अनपढ़ स्‍त्री नही है। एक उच्‍च्‍शि‍क्षि‍त परि‍वार में भी बेेटे-बेटी को लेकर इतना अंतर है और नारी असमर्थ है, कि‍ वह अपने समान एक नारी को अपनी मर्जी से पैदा कर सके। वह रो रही है, परेशान हाल है पर कुछ कर नहीं सकती।

 ये कैसा महि‍ला दि‍वस मना रहे हम....

हां एक संतोष जरूर है मन में। मैं पि‍छले दि‍नों राजस्‍थान में थी। वहां माऊंट आबू में जहां गई, मुझे लगभग हर जगह छोटे-बड़े काम करती महि‍लाएं दि‍खीं। यानी वो आत्‍मर्नि‍भर हो रही हैं। जब मैं आबू के सनसेट प्‍वांइट पर गई, तो एक चाय बेचने वाली महि‍ला के बगल में बैठ गई। बहुत खूबसूरत सी लड़की थी, साथ ही एक बच्‍चा भी था उसका। एक-सवा साल का। वो चाय ले लो की आवाज लगा रही थी। मैंने चाय ली। थोड़ी देर बाद उसने अपने बच्चे को एक गुब्‍बारा पकड़ाया हाथ में और केतली में चाय भरकर चाय ले लो की आवाज लगाते घूमने लगी। थोड़ी देर तक तो बच्‍चा चुप रहा, फि‍र अपनी मां को न पाकर जोर-जोर रोने लगा। मैंने उसे संभालने की कोशि‍श की पर वो रोता ही जा रहा था।
तब तक उसकी मां आई। दौड़कर गोद में उठाया। मैंने कहा-कहां छोड़ गई इतने छोटे बच्‍चे को। वो घबराने लगा तुम बि‍न। कहने लगी- क्‍या करूं दीदी। ऐसे में ताे मैं कुछ बेच ही नहीं पाऊंगी। कुछ कमाई होगी नहीं। फि‍र वो बड़बड़ाने लगी अपने बेटे काे सुनाकर कि‍- इसलि‍ए मैं तुम्‍हें घर छोड़कर आती हूं।
मुझे लगा घर में यही कमाने वाली होगी। पूछा- अकेली रहती हो। कहने लगी नहीं दीदी, मेरी जेठानी है। उसी के पास छोड़ आती हूं। मगर उसका भी छोटा बच्‍चा है। वह रोज संभालना नहीं चाहती। मैंने कहा- पति‍, बोली- है न। ड्राइवर हैं। सुबह गाड़ी लेकर जाते हैं तो देर शाम लाैटते हैं। मैं सारा दि‍न घर पर पड़ी क्‍या करूं। सो चाय-पानी की दुकान लगा लेती हूं। दोपहर तक घर का काम नि‍पटा कर सनसेट प्‍वांइट पर आती हूं। सूरज ढलने के बाद वापस घर जाकर वहां का काम। इस बीच कुछ पैसे बन जाते हैं।

वाकई दि‍ल से खुशी हुई। यह कोई मजबूरी नहीं थी उसकी। वह आत्‍मर्नि‍भर बनना चाहती है, क्‍योंकि‍ उसे अच्‍छा लगता है। हालांकि‍ मैं जहां रहती हूं वहां की आदि‍वासी महि‍लाएं भी खूब काम करती हैं खेतों में। पर यह उनकी जि‍म्‍मेदारी है। उनकी खुशी से चयन कि‍या हुआ कार्य नहीं, जैसा कि‍ उस चाय बेचने वाली लड़की गुड़ि‍या ने कि‍या है।
यानी उम्‍मीद बाकी है...दूर तक, देर तक चलना है पर एक दि‍न सूरत बदलेगी। उस दि‍न हम दि‍ल से मना सकते हैं...महि‍ला दि‍वस।

तस्‍वीर- माऊंट आबू की गुड़ि‍या की ..

आज 14.3.2016 को दैनि‍क हिंदुस्तान के संपादकीय पृष्‍ठ पर 'साइबर संसार' कॉलम में यह लेख प्रकाशि‍त कि‍या गया है। 

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2 comments:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10 - 03 - 2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2277 में दिया जाएगा
धन्यवाद

सुनीता अग्रवाल "नेह" said...

आस पर ही दुनिया कायम है |