वो तुम न थे, कोई और था
जो ढलती शाम मुझे आंखों में कैद कर
रातों को जुगनू बना
दिल का अंधेरा कोना रौशन करता था.....
वो तुम न थे, कोई और था
जो पहाड़ों से रेगिस्तान तक
सुबह की नर्म धूप से सर्द रात तक
मेरे संग-संग डोलता था.....
वो तुम न थे, कोई और था
पवनचक्की की शोख हवाओं से
बिखरे मेरे गेसुओं को
अपनी ऊंगलियों से सुलझाता था....
वो तुम न थे, कोई और था
जो उजड़े दयारों में संगीत बन जाता था
हवेलियों की दीवारों पर
ऊंचे मीनारों पर, बस नाम मेरा लिखता था...
वो तुम न थे, कोई और था
जो शिवालय की सीढ़ियां
मेरा हमकदमम बन चढ़ता था
हरेक मोड़ पर मुझको बाहों में भरता था...
वो तुम न थे, कोई और था
जो इकतारे की धुन सुन
ठिठक कर वहीं रूकता था
प्रेम मगन हो , आंखों में प्रेम भर झूमता था...
वो तुम न थे, कोई और था
झील के पानी में रहकर
आंखों के समंदर में डूबता था
भीड़ में भी बस मेरा हो मुझको मिलता था....।
तस्वीर- जैसलमेर के बड़ा बाग की
4 comments:
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Thank u so much
बेहतरीन अभिव्यक्ति.....बहुत बहुत बधाई.....
बेहतरीन अभिव्यक्ति.....बहुत बहुत बधाई.....
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