Tuesday, March 1, 2016

वो तुम न थे, कोई और था.....


वो तुम न थे, कोई और था
जो ढलती शाम मुझे आंखों में कैद कर
रातों को जुगनू बना
दि‍ल का अंधेरा कोना रौशन करता था.....

वो तुम न थे, कोई और था
जो पहाड़ों से रेगि‍स्‍तान तक
सुबह की नर्म धूप से सर्द रात तक
मेरे संग-संग डोलता था.....

वो तुम न थे, कोई और था
पवनचक्‍की की शोख हवाओं से
बि‍खरे मेरे गेसुओं को
अपनी ऊंगलि‍यों से सुलझाता था....

वो तुम न थे, कोई और था
जो उजड़े दयारों में संगीत बन जाता था
हवेलि‍यों की दीवारों पर
ऊंचे मीनारों पर, बस नाम मेरा लि‍खता था...

वो तुम न थे, कोई और था
जो शि‍वालय की सीढ़ि‍यां
मेरा हमकदमम बन चढ़ता था
हरेक  मोड़ पर मुझको बाहों में भरता था...

वो तुम न थे, कोई और था
जो इकतारे की धुन सुन
ठि‍ठक कर वहीं रूकता था
प्रेम मगन हो , आंखों में प्रेम भर झूमता था...

वो तुम न थे, कोई और था
झील के पानी में रहकर
आंखों के समंदर में डूबता था
भीड़ में भी बस मेरा हो मुझको मि‍लता था....।

तस्‍वीर- जैसलमेर के बड़ा बाग की


4 comments:

Anonymous said...

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रश्मि शर्मा said...

Thank u so much

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बेहतरीन अभिव्यक्ति.....बहुत बहुत बधाई.....

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बेहतरीन अभिव्यक्ति.....बहुत बहुत बधाई.....