उसने लगाई अर्जी
बताई मियाद , कहा रूकना
जाना नहीं
इंतजार करना मेरा
मैं आता हूं लौटकर
फिर करूंगा हिसाब
दूंगा सफाई
किए-अनकिए, वफ़ा बेवफ़ाई की
मैं चुप रही
सुनती रही वो बातें
जो बरसों से सुनती आई हूं
रोती रही आंखें
दहकता रहा वजूद
सारे जंगल की आग जैसे
मेरे अंदर लहक रही हो
सोचती रही
काश मैं रूदाली होती
जो ज़रूरत-बेज़रूरत रो लेती
किसी के बहाने
अपना ग़म हल्का करती
और आंसू पोंछ
फिर नया जख्म, नया दर्द लिए
किसी बुलावे का इंतजार करती
मगर मैं रूदाली नहीं
न मेरा दर्द ऐसा
जो दिन, तारीख़, सहूलियत देख
सीने में उभरे
और मैं बेतहाशा रोऊं
अब कैसा और किसका इंतजार
मौत और जज़्बातों की
तारीखें तयशुदा नहीं होतीं
छलनी यकीन ने
तभी तोड़ डाला मेरा दिल
अब अर्जियां कहां लगेंगी
न सरकारी दफ़्तर है मेरा मन
न मन्नतें पूरी करने वाला पेड़
जिस पर लाल धागा बांध
कोई चला जाए
मैं लौटाती हूं बाइज्जत
तुम्हारी सारी अर्जियां
तमाम छुट्टियां की जाती है निरस्त
कि आपातकाल में
खु़शी-गम की कोई भी गिनती नहीं होती।
तस्वीर- माऊंट आबू पर एक पहाड़ की..
2 comments:
बहुत सुंदर उदगार और व्यथा से भरी रचना ....
आशु
बहुत सुंदर
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