मन पेंसिल सा है
इन दिनों
छीलता जाता है कोई
बेरहमी से
उतरती हैं
आत्मा की परतें
मैं तीखी, गहरी लकीर
खींचना चाहती हूं
उसके भी वजूद में
इस कोशिश में
टूटती जाती हूं
लगातार
छिलती जाती हूं
जानती हूं अब
वो दिन दूर नहीं
जब मिट जाएगा
मेरा ही अस्तित्व
उसे अंगीकार
किया था
तो तज दिया था स्व
उसके बदन पर
पड़ने वाली हर खरोंच
मेरी आत्मा पर पड़ती है
मन के इस मिलन में
मैंने सौंपी आत्मा
उसने पहले सौंपा
अपना अहंकार
फिर दान किया प्यार
वाणी के चाबुक से
लहुलुहान है सारा बदन
पर अंगों से नहीं
आत्मा से टपकता है लहू
कोई छीलता जाता है
मन अब हो चुका है
बहुत नुकीला
पर इसे ही चुभो कर
दर्द दे नहीं सकता उसे
जिसे अपनाया है
चोटिल आत्मा
अब नहीं करती कोई भी
सवाल
हैरत है तो बस इस बात पर
कि बेशुमार दर्द पर
एक शब्द -प्यार' अब भी भारी है।
तस्वीर---मन की तरह उमसाए से बादल उमड़-घुमड़ रहे आस्मां पर
7 comments:
बहुत सुन्दर और सार्थक उपमा
वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह
वाह दी क्या कहूँ ..आपकी पेंसिल ने मन पर बहुत कुछ उकेर दिया
वाह ! बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति
बधाई रश्मि जी
आपकी इस पोस्ट को शनिवार, ०४ जुलाई, २०१५ की बुलेटिन - "दिल की बात शब्दों के साथ" में स्थान दिया गया है। कृपया बुलेटिन पर पधार कर अपनी टिप्पणी प्रदान करें। सादर....आभार और धन्यवाद। जय हो - मंगलमय हो - हर हर महादेव।
वाह !
प्यार का एह शब्द पूरी उम्र भारी रहेगा किसी भी बात पर ...
अच्छी रचना ...
अनूठे भाव, सुन्दर संप्रेषण।
विजय निकोर
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