Tuesday, June 9, 2015

वनजा..तू उजड़े वन सी क्‍यों हैं....


वनजा..तू उजड़े वन सी क्‍यों हैं
इतना सहती, कुछ न कहती
खाली पेट आचमन सी क्‍यों है
वनजा..तू उजड़े वन सी क्‍यों हैं।

तेरे लि‍ए बहुत चिंता है
शोर संसद में बरपा है
पढ़ा-लि‍खा कर काम दि‍लाएंगे
बि‍टि‍या तुझको सबल बनाएंगे
बावली अनमनी सी क्‍यों है
वनजा..तू उजड़े वन सी क्‍यों हैं।

सदि‍यां बीत गई, वादे दुहराते
तू छली गई, भीतर से टूट गई
अब तक नहीं आई वो नई सुबह
फि‍र भी तू जीवन सी क्‍यों हैं
वनजा..तू उजड़े वन सी क्‍यों हैं।

तूने तो हर दुख झेला है
तू संतापों का मेला है
बरतन-बासन, रोटी-सालन
ये तेरी कि‍स्‍मत का लेखा है
हंसी तेरी अनमनी सी क्‍यों है
वनजा..तू उजड़े वन सी क्‍यों हैं।

6 comments:

Ashi said...

सीधे और आसान लफ्जों में गहरी बात कह दी आपने इस कविता में। बधाई।
............
लज़ीज़ खाना: जी ललचाए, रहा न जाए!!

Asha Lata Saxena said...

सुन्दर भाव |

JEEWANTIPS said...

सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11 - 06 - 2015 को चर्चा मंच पर बरसों मेघा { चर्चा - 2003 } में दिया जाएगा
धन्यवाद

HARSHVARDHAN said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन दर्द पर जीत की मुस्कान और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

अति सुंदर।