Tuesday, June 16, 2015

अलवि‍दा कहते रहे ......



उस रोज
जब ताड़ से छि‍टकी
चांदनी में
चमक उठी थी
सहरा की रेत
दि‍न की खि‍ली-खि‍ली
अमलतास की
नाजुक कलि‍यां
अब चांदनी की ओट में
अंगड़ाइयां भर-भर सो रही थी
बीथोवन की धुन पर
थि‍रक रही थी रात
मगर
उस रोज
जब हम मि‍ले थे, हमारे भीतर
जो ठहरा था
वो कहीं भटक गया था
बेचैन गर्म हवाओं से मि‍ल
मुखर होने को
मौन लालायि‍त होता रहा
अनकही व्‍यथाएं
आह भरती रहीं
दूर बीथोवन की धुन
अनवरत बजती रही
अलमतास के फूल
दो जोड़ी आंखों के आंसु बन
रात भर झरते रहे
ताड़ के पत्‍तों से छि‍टकी चांदनी
मलि‍न होती गई
वादों के दो छोरों पर दो हाथ
अलवि‍दा कहते रहे ......

6 comments:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18 - 06 - 2015 को चर्चा मंच पर नंगी क्या नहाएगी और क्या निचोड़ेगी { चर्चा - 2010 } पर दिया जाएगा
धन्यवाद

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बहुत बढ़िया

दिगम्बर नासवा said...

अलविदा कहते हाथ काश मिल के साथ चलते तो कहानी कुछ और ही होती ...
गहरा एहसास लिए है रचना ...

Unknown said...

बेहतरीन अभिब्यक्ति , मन को छूने बाली पँक्तियाँ

कभी इधर भी पधारें

सुनीता अग्रवाल "नेह" said...

sundar rachna

Vinars Dawane said...

जब हम मि‍ले थे, हमारे भीतर
जो ठहरा था
वो कहीं भटक गया था... . bhut se bimb hai... . bhut acchi abhivyakti hai