Wednesday, June 3, 2015

जब तक कोई नहीं था........


जब तक
कोई नहीं था
तुम्‍हारे थके कदमों की आहट पहचान
दौड़ कर दरवाजे की कुंडी खोलने को

जब तक
कोई नहीं था
तुम्‍हें एक कप गर्म कॉफी के साथ
अपनी उष्‍ण सांसो से तुममें ऊर्जा भरने को
जब तक
कोई नहीं था
तुम्‍हारे दि‍न भर की थकान को
नर्म ऊंगलि‍यों और मीठे बोल से हरने को
तब तक
मैं ही हुआ करती थी सब कुछ, तुम्‍हारी दुनि‍या
अब बहुत
शोर है चारों तरफ, इस घर में भी
अब तुम्‍हारे थके कदम सीधे मुझ तक नहीं आते
अब तुम
सारी दुनि‍या की शि‍कायत मेरे सामने नहीं करते
न ही रातों को
मेरा नाम पुकारते-पुकारते पहले जैसे हो सोते
अब मैं
परछाई सी नहीं डोलती तुम्‍हारे आगे-पीछे
अब तुम्‍हारे सेहन में
नहीं खि‍लते मेरे लि‍ए गुलाबी गुलाब
न तुम्‍हारी खि‍ड़की तले कूकती है कोयल
अब रातों को कमरे की
सफ़ेद दीवारों पर उभरने वाला
अक्‍स मि‍ट गया है
दि‍ल में जो रहता था कोई
उसका हर नक्‍श मि‍ट गया है
गर्म सांसों की थपकि‍यां दे
नहीं सुलाता है अब कोई
तुम मेरी जरूरत हो
यह कहकर पास नहीं आता है कोई
अपने शाने पर मेरा सर रखकर
चांद से झूठ-मूठ नहीं बति‍याता है कोई
अब तुम
हर उस जगह होते हो, जहां मैं नहीं होती
ये दर्द सालता है हर शाम
काश दि‍ल की चौखट पर भी कोई दरवाजा होता
जि‍से बार-बार खोला और बंद कि‍या जा सकता
कि‍सी शाम तुम आते
खटखटाते रहते मेरे दि‍ल का दरवाजा
और इस बार मैं कुंडी नहीं खोलती, बाकी उम्र के लि‍ए।

3 comments:

Sanju said...

Very nice post ...
Welcome to my blog on my new post.

Tamasha-E-Zindagi said...

आपकी इस पोस्ट को शनिवार, ०६ जून, २०१५ की बुलेटिन - "आतंक, आतंकी और ८४ का दर्द" में स्थान दिया गया है। कृपया बुलेटिन पर पधार कर अपनी टिप्पणी प्रदान करें। सादर....आभार और धन्यवाद। जय हो - मंगलमय हो - हर हर महादेव।

Mithilesh dubey said...

बहुत ही उम्दा रचना


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