Tuesday, May 26, 2015

मन के सींखचों में.....


इन दि‍नों
भरी दोपहरी में अक्‍सर
सन्‍नाटा पसरा होता है
चारों ओर
होता है सब खाली-खाली

इस एकांत में
बचपन कहीं से नि‍कल आता है
देखती हूं
अचानक हवा आती है
गोल-गोल वृताकार
चक्‍कर काटती
उस गोले के अंदर 
हैं कुछ सूखे पत्‍ते
कुछ फटे कागज के पन्‍ने
और धूल ही धूल

मैं हैरत भरी नि‍गाहों से
देखती हूं
धूल के गोले के अंदर
जाने की कोशि‍श करती
मां के कहे को अनसुना कर
कि‍ मत जाना कभी
ऐसे घूमते घेरे के अंदर
ये चक्रवात तुम्‍हें
उड़ा ले जाएगा कहीं दूर

मैं बच्‍ची थी, सोचती थी
आखि‍र ये हवा का गोला
कि‍तनी दूर तक उड़ा
ले जा  सकता है कि‍सी को
इन धूल भरी आंधि‍यों से
कैसा डर

आज भी आते हैं
कई ऐसे चक्रवात
भरी दोपहरी, धूल भरे
एकांत में
मैं मां की ताकीद याद कर
रोकती हूं
इन आंधि‍यों के अंदर
खुद को जाने से

पर ये आंधि‍यां
बड़ों को नहीं खींचती
उनका मन ले जाती है
सूखे पत्‍ते और फटे पन्‍नों के बीच
जहां चक्‍कर खाता है मन
और बेसुध हो
कि‍सी ऐसी जगह गि‍र जाता है
जहां से
उठाकर लाना
इस शरीर के बस की बात नहीं

पतझड़ और हवाओं के गोले
शापि‍त होते हैं
ये हर उस मन को हर ले जाते हैं
जहां हल्‍का सा
चटखा होता है कुछ
बातों, यादों, छलनाओं के
चक्रव्‍यूह में फंसकर
उम्र भर घूमता रहता है
अपने ही मन के सींखचों में
कैद, नि‍रूपाय सा

7 comments:

RITA GUPTA said...

bahut sunder rachna .man ko chuu gayi ,badhai .

Nitish Tiwary said...

सुन्दर भाव के साथ बेहतरीन प्रस्तुति दिया है आपने.
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.
http://iwillrocknow.blogspot.in/

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28-05-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1989 में दिया गया है
धन्यवाद

Madan Mohan Saxena said...

बहुत खूब , शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन
कभी यहाँ भी पधारें

Madan Mohan Saxena said...

बहुत खूब ,
कभी यहाँ भी पधारें

Asha Joglekar said...

Chakrawat sabhee ko karta hai mohit. Sunder rachana.

दिगम्बर नासवा said...

अतीत की यादें और गहरे भाव सहज लिख दिए जैसे ...