एक लम्हा मिलन का
था कि जुदाई का
आओ आज
फिर से याद करें
तुम बिन,
मैं थी बहुत अधूरी
पर मिलकर भी ,
कहाँ हो पाई पूरी
मिल कर तुमसे
और भी
उदास हो गए हम
तुम्हें छू कर आती
हवाओं को
भर तो लिया सांसों में
इक हसरत थी
जी भरकर देखूं
खुद को तेरी आँखों में
ये आरजू भी कहां हो पाई पूरी
4 comments:
अच्छी कविता
सुनील कुमार सजल
sochtaahoon.blogspot.com
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-05-2015) को माँ की ममता; चर्चा मंच -1987 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
एहसास की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !
उत्तर दो हे सारथि !
बहुत सुंदर
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