Friday, May 15, 2015

आजी (दादी )



जंगल से
सूखी, पतली लकड़ि‍यां चुन
मि‍ट्टी के चूल्‍हे पर 
रोज
भात रांधती है आजी
धुंधआती आंखों में
भरता है और धुआं
फूंक-फूंक कर
सुलगाती है चूल्‍हा
माड़-भात तो कभी
पानी भात और साग
खाकर
तृप्‍त हो जाती है
आजी
जब कि‍सी सांझ
नए स्‍वाद के लि‍ए
लपलपाती है जि‍ह्रवा
तो ढि‍बरी जलाकर
मड़ुआ की रोटी
पकाती है
और दो बि‍लौती की
खुब मरचाई डालकर
चटनी पकाती है आजी
अपने अंगना में
ईंट के पीढ़े पर बैठ
मजे से खाती
और खि‍लखि‍लाती है आजी।

मेरी ली हुई यह तस्‍वीर दैनि‍क भास्‍कर ने भी छापी 7 मई को




3 comments:

Onkar said...

वाह, क्या कमाल का लिखा है आपने

दिगम्बर नासवा said...

केनवस सा उतार दिया आँखों के सामने इन शब्दों द्वारा ... सजीव कविता ...

रश्मि शर्मा said...

Dhnyawad aapka