ओ चैत के कारे बदरे
क्यों उमड़-घुमड़ तू आया
पत्थर-पानी बरसा कर
पत्तों को डाल से छिनगाया
अभी पकी-झुकी थी
सोने सी गेहूं की बालियां
झर गए आधे
किसान खड़ा दम साधे
सूना रह जाएगा
इस बार खलियान
चैत के इन पुरवाईयों ने
महुआ तो खूब टपकाया
पर बरस-बरस कर तूने
पानी से क्यों आग लगाया
पड़े है आम के टिकोरे सारे
धरती पर
फसल हो गई सारी बर्बाद
देख गेंहूं के काले-काले दाने
खेतिहर का मुंह हुआ अन्हार
ओ चैत के कारे बदरे
क्यों उमड़-घुमड़ तू आया
ओले-आंधी चला-चलाकर
गिरगिटी सा रंग बदल क्यों
रोज आकाश पर है छाया।
तस्वीर-कुछ दिन पहले ली थी
7 comments:
बहुत सुंदर दी ..सच में मौसम के मिजाज़ बदले बदले से हैं आजकल |
मौसम के मिजाज को बाखूबी लिखा है ..
शायद मौसम भी इंसानी दुराव का शिकार है तभी इतना गुसाया हुआ है इस मौसम में भी ...
लाजवाब
शानदार रचना...
किसानो का दर्द भी हैं,प्रकृति का व्याख्यान भी..
शानदार
सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
शुभकामनाएँ।
बढ़िया रचना
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