Monday, March 16, 2015

“अँगारमणिका” बोलता है मुझे, पलाश वन




मुक्ताकाश के नीचे
थक कर अँखियाँ मींचे
जोगिया पलाश तले
अंगारमणि अधरों को भींचे
किस की राह देख रही हो
अँगारमणिका.......

स्वेदकणों से सिंचित गालों से
उन को चूम रहे काले बालों से
मद भरी रेशमी अंखियों के प्यालों से
किस को मौन निमंत्रित कर रही हो
अँगारमणिका.......

तन का बनफूल खिला-खिला सा
बिछुड़ा कोई मीत कल मिला-मिला सा
अलसाई प्रीत का
रतनारी अक्स झिलमिला सा
किस का गुंजलक याद कर बिहंस पड़ी हो
अँगारमणिका.......

कुछ घडी मेरे पनाहों में
रुकती जाओ
अपनी मांग में पलाश का
मकरंद भरती जाओ
चिर परिचित इस बन के
विस्तार में खो जाओ
किस की लाज  में यूँ गड़ी हो
अँगारमणिका.......

बन की पुरवाई को
अपने आँचल में जगह दो
मेरी छुवन को अपने
सपनो की वज़ह दो
मैं ही मीत बचपन का हूँ
बस इत्ता सा कह दो
किस के परिणय-गांठ से अब बंधी हो
अँगारमणिका.......


2 comments:

दिगम्बर नासवा said...

भावमय ... बहुत सुन्दर .. पलाश और परें तो पूरक हैं ...

Anonymous said...

बहुत ही सुंदर और भावपूर्णं रचना।