पुस्तक समीक्षाः नदी को सोचने दो (रश्मि शर्मा)
बोलेंगी किताबें...
नदी को सोचने दो
कविता संग्रह
लेखिकाः रश्मि शर्मा
मूल्यः120 रुपए
प्रकाशकः बोधि प्रकाशन, जयपुर
युवा कवि-पत्रकार रश्मि शर्मा के ताजा कविता संग्रह में शामिल कविताएं बेचैन मन की कातर पुकार की तरह सतह पर उभरती हैं। नए-नए बिंबों और प्रतीकों के साथ बेबाक और बेलौस कविताएं अपना अलग पाठ रचती दिखाई देती हैं। ये कविताएं उस दौर में उपस्थिति दर्ज करा रही हैं जब स्त्रियों की कविताएं एक खास विरोधी वर्ग द्वारा ठिकाने लगाई जा रही हैं। जिन्हें हल्का करके आंका जा रहा है। सच तो यह है कि समकालीन कविता के लिए अभी वह समझ या वह उदारता विकसित नहीं हुई है जिसकी मांग ये कविताएं करती हैं।
परंपरा में सेंध लगाकर नए प्रतीक रचती हुई ये कविताएं प्रतिसमय रचती हैं। जो सबका समय हो, जरुरी नहीं वह कविता का समय हो। अपने बेबाक परिसर में टहलती हुई ये कविताएं पाठकों को कुरेंचती हैं, टोहकती हैं, उकसाती हैं और आश्वस्त करती हैं अपने गठन में।
कविता से नैराश्य के इस दौर में रश्मि की कविताएं अपने लिए अलग पाठ की मांग करती हैं। कवि को पारंपरित प्रतिमानों और उपमानों को भी कविता में बरतती हैं पर उसे बिल्कुल बासी नहीं लगने देतीं, उसे नई उपमा से भर कर चौंका देती हैं। झील सी आंखें तो बहुत बार कविता गीत में दोहराई गईं, घिसा हुआ जुमला हो गया है पर रश्मि जब इसे सूर्ख गुड़हल से जोड़ती हैं तो आप चौंक पड़ते हैं।
“चांगु झील की तरह
कभी खूबसूरत थी जो आंखें
अब सूर्ख गुड़हल सी है...”
कभी खूबसूरत थी जो आंखें
अब सूर्ख गुड़हल सी है...”
संग्रह में ज्यादातर प्रेम कविताएं हैं और प्रेम के प्रति बेहद भावुक नजरिया भी। ये कविताएं किसी विमर्श की ओर नहीं ले जाती हैं न बहुत सोचने पर बाध्य करती हैं। प्रेम की जैसी अनूभूति हो सकती हैं, वैसी बड़ी ईमानदारी से व्यक्त की गई है। लेकिन वही कविता अचानक तेवर बदल कर रुढ़ियों से टकराने का साहस बटोरती है पर हुंकार के शिल्प में नहीं, प्रार्थना के शिल्प में।
“बाबा मेरे
नहीं करना ब्याह मुझे
मत बांधो बंधन में
मैं भोग्या नहीं
मैं जागीर नहीं,
मैं बंधुआ मजदूर नहीं
मुझे दे दो मेरे हिस्से का आजादी
खी सांस और खुला आसमान
कि मैं कोलंबस की तरह जीना चाहती हूं...”
नहीं करना ब्याह मुझे
मत बांधो बंधन में
मैं भोग्या नहीं
मैं जागीर नहीं,
मैं बंधुआ मजदूर नहीं
मुझे दे दो मेरे हिस्से का आजादी
खी सांस और खुला आसमान
कि मैं कोलंबस की तरह जीना चाहती हूं...”
कवि को यहां लगता है कि पितृसत्ता से आजादी या मुक्ति मांग कर ली जा सकती है। यहां वे थोड़ी लाचार दिखाई देती हैं। मुक्ति के इस दौर में आजादी मांगी नहीं, पाई जाती है, अपने संघर्षों से, मुठभेड़ से और बहुत कुछ त्यागने के साहस से। अब मांगने की बात नहीं, पाने की बात करनी है। भारतीय समाज में स्त्री का कोलबंस की तरह जीना कभी संभव शायद ही हो पाए। कविता में यह चाहत बहुत तीव्रता से उभरती है।
इस तरह की अनेक कविताएं हैं जो बहसतलब हैं। प्रेम है, बिछोह है, करुणा है, पुकार है, प्रतीक्षा है, यानी वे तमाम छायाएं हैं जो एक स्त्री को घेरे रहती हैं और जो एक स्त्री को पुरुषों से अलग करती हैं। हर हाल में जिंदा रहने की ख्वाहिशों से भरी कविताएं कई जगह गहरे अंतर्विरोधों से भरी हुई हैं जो निराश करती हैं।
जब कवि कहे -
“तुम जिस रूप में भी आओगे, हम वही हो जाएंगे”
फिर अगली कविता में कहे-
“हां, मैं झरना हूं
कहीं रुकना नहीं चाहती
कहीं बंधना नहीं चाहती...”
कहीं रुकना नहीं चाहती
कहीं बंधना नहीं चाहती...”
तब भ्रम होना स्वाभाविक है।
प्रेम और बिछोह के आवेग से भरी हुई कुछ कविताएं पठनीय हैं।
http://www.liveindiahindi.com/book-review-nadi-ko-sochne-do…
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3 comments:
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 12-03-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1915 में दिया जाएगा
धन्यवाद
बहुत खूब,बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.
बहुत सुन्दर
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