Monday, February 2, 2015

बसंत के इस मौसम में.......


बसंत के इस मौसम में
पाया हमने
छलनाओं के जाल
का रंग
बासंती नहीं सतरंगा है


रंगों के आकर्षण ने
माेहा था मन को
कर दि‍या समर्पण
अपना अस्‍ति‍त्‍व
अपना प्राण

हरे पेड़ों का रंग अब
बदरंग भूरा सा है
वादों के सब्‍ज रास्‍तों में
अटी पड़ी है धूल-माटी

वो शाम
ठहर गयी जिंदगी की
जि‍स दि‍न
हटा था परदा एक सच से

प्रति‍आरोपों की मूठ से
ति‍लमि‍लाई शाम
मृत्‍यु-शैया पर
अब भी जिंदा है

दहशत भरी रातें हैं
बि‍यावान सा दि‍न
पत्‍थरों पर लहरें
पटक रही माथा
समुन्‍दर का पानी
लाल हुआ जा रहा

बहुत से पत्‍ते
टूट कर गि‍रे हैं पेड़ों से
सूखे होठों की फरि‍याद
नि‍रस्‍त है
मेरे पतझड़ का मौसम
जमाने के लि‍ए बसंत है।

11 मार्च 2018 को प्रभात खबर 'सुरभि‍' में छपी 

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (03-02-2015) को बेटियों को मुखर होना होगा; चर्चा मंच 1878 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Alpana Verma said...

बहुत खूब!

Pratibha Verma said...

बहुत खूब।