Sunday, February 1, 2015

भरोसे की आंच में..........


इन दि‍नों
रात गहराती है
ढांक-दाब के रखा तनाव
कमरे की सफेद दीवारों पर
सि‍तारों सा नाचता है
पेशानी पर पड़ी लकीरें
और गहराती हैं
आंखों की झील में
रोज नए सवालों की
कि‍श्‍ति‍यां, बेआवाज
डूबती जाती है,
यातनाओं की पीड़ा
रोकना, सहना
दुश्‍वार होता है
गले में बिंधे तीर सी
चीत्‍कार नि‍कल जाती है
न प्राण नि‍कलते हैं
न दर्द कम होता है
याद भी नहीं जाती
जल रहे मन की भट्टी में
तप रहा सर्वांग
जीना-मरना
सब खाक हुआ जाता है
प्‍याज की तरह उतरती है
इंसानी फि‍तरत और
दगाबाजी की परतें
एक खूबसूरत संबंध की
मौत
कलई उतरने से हो जाती है
रि‍श्‍ते की सांझ में
उस अजनबी का चेहरा
कौंधता है
भरोसे की आंच में
तमाम उम्र का यकीन रोता है
दुख: ये नहीं है
कि‍ लोग बदल जाते हैं
दर्द बस इतना है
आज भी रावण हमें भरमाने को
साधु बन कर ही आते हैं..।

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