दौड़ते सूरज पर ठहरी निगाहों को पता भी नहीं चला कि कब शाम उतरी और और अंधेरे ने लपेट लिया धरती को....पेड़ों के झुरमुट पर और गहरा गया था अंधेरा...अचानक शाम को अजान की आवाज के साथ कांपती सी सिसकी सुन तंद्रा भंग हुई...
देखा सामने, तो सूरज डूबने के बाद हल्के पीले-नारंगी आकाश से इकलौता टिमटिमाता तारा नीचे उतर मेरी चिबुक को अपनी ऊंगलियों से थामकर ऊपर उठा रहा था.....पाया मैंने, कि कानों तक आने वाली सिसकियां अपने ही होंठो से निकल रही थी और आंखों से बहने वाले काजल ने शाम का रंग और गहरा दिया था।
मैंने अपने आंचल में भर ली सारी उदासी और तारे को चूम भेज दिया अंबर के पास....अगले पल मैंने नल की ठंढ़ी धार के नीचे रख दिया चेहरा....बहने दिया आंसुओं को..संग-संग
अब बर्फ हो गया था चेहरा....हमारे बर्फ हुए रिश्ते की तरह...इस सर्द मौसम में वो आंच कहां से लाऊं...जो पिघला दे ये मन....
तस्वीर...यूं ही ढलती शाम की
6 comments:
रिसते हुए रिश्तों का बनाये रखना किसी चुनौती का कम नए आज के समय में ....
बहुत सुन्दर सामयिक चिंतन प्रस्तुति
रिसते हुए रिश्तों का बनाये रखना किसी चुनौती का कम नए आज के समय में ....
बहुत सुन्दर सामयिक चिंतन प्रस्तुति
सुन्दर अभिव्यक्ति
सुन्दर प्रस्तुति
लेखकों की वह कलम जादुई थी या पढने वाले की कल्पना-शक्ति , एक एक शब्द मन में आकृतियाँ उकेरते और दृश्य जीवंत हो उठते थे ।
उन्हीं कहानियों का विडियो
रूपांतरण देखने पर भी दृश्य कल्पना के बनाये दृश्य जैसे ही दीखते हैं : बस फर्क इतना है कि विडियो spoon feeding करते हुए शब्दों का कल्पना से रिश्ते को खत्म करता आ रहा है । जिस तरह कल्पनाशक्ति हमारे मन में उन अक्षरों के अनुरूप दृश्य उकेर देती है उसी तरह वह मन के विचारों को अभिव्यक्त करने हेतू बेहतर शब्द और अक्षर भी दे सकती है : धीरे धीरे यह अभ्यास छूटता जाएगा तो यह हिंदी के शब्द अक्षर भी हमे Egypt के मकबरो पे लिखी भाषा की तरह अबूझी और रहस्यमयी भाषा दिखने लगेंगे ।
अक्षरों से कल्पना के इस रिश्ते के बिना कौन किसकी बात समझ पायेगा यह कहना कठिन ही नही नामुमकिन होगा ।
बहुत ही खूबसूरत लिखा आपने।
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