जा रही है वो
कहां, ये उसे भी नहीं
है मालूम
बाहर के कुहासे
और अंदर के अंधेरे में घिर
पसरा अनवरत मौन है
जाने से पहले
एक उचटती नजर डाली
बिखरे घर और
आईने पर
जो ठीक लगा उसे अपने मन जैसा
उढ़का के दरवाजा
जब निकली
तो हाथाें में सिवा
एक डायरी के
कुछ भी नहीं था साथ
थके कदमों से
चलती जा रही है
जानती है वो
उसकी अब कोई मंजिल नहीं
बस सफ़र ही सफ़र है
कुहासे भरी रात में
रौशनी के नीचे
गीली, कांपती हवा को
देख, याद आया उसे
अपना और उसका साथ
वक्त अब इस करवट है
कि, जो करता था उससे
बेइंतहा प्यार
अब उसकी काया से
करके नफरत
उसकी छाया को चूमता है
वो चुप देखती थी
अपनी ही परछाईं को
संतृप्त होते
और भीगी हवा की तरह कांपती
दृश्य और हवाओं का रूख
पलटना चाहती थी
ओस झरती रात
सीली हवाएं , थरथराता तन
और भीगा मन
कहती है वो, बदलना है
किसी को कुछ नहीं कहना है
परछाईयों से लड़कर
क्या जीत क्या हार
अब तो बस चलना है
क्योंकि
ये जीवन ही छलना है.....।
तस्वीर..कल कुहासे भरी शाम की
4 comments:
बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना
दिल को छूने वाली गहन भावों से पूर्ण रचना ।
हार्दिक बधाई रश्मि जी
ओह्! परफ़ेक्ट… कुहासे से गुज़ारते हुए… एकदम जीवन के छलावे से परिचित करा दिया…
धन्यवाद!
बहुत सुन्दर रचना सीधे दिल में उतर जाने वाली ..
Post a Comment