कोई नहीं बोलता
आमने-सामने रखी
दो खाली कुर्सियां
चुप पड़ी एक दूजे का
मुंह तकती है
आमने-सामने रखी
दो खाली कुर्सियां
चुप पड़ी एक दूजे का
मुंह तकती है
दिसंबर की इस दोपहर में
हरे पत्तों पर
चमक रहा है सूर्य
एक बढ़ई लगातार
रेत रहा है आरी से
लकड़ी का सीना
हरे पत्तों पर
चमक रहा है सूर्य
एक बढ़ई लगातार
रेत रहा है आरी से
लकड़ी का सीना
मेरी आंखों के आगे
है एक काला परदा
और घुप्प अंधेरा
डगमगाते से शब्दों को थाम
एक आवाज बुनने की
कोशिश करती हूं
है एक काला परदा
और घुप्प अंधेरा
डगमगाते से शब्दों को थाम
एक आवाज बुनने की
कोशिश करती हूं
मैं सुनना चाहती हूं उसे
जिसकी आदत है
बरसों से मुझे
पर न मीठा न रूखा
कोई नहीं बोलता
जिसकी आदत है
बरसों से मुझे
पर न मीठा न रूखा
कोई नहीं बोलता
मैं अचानक इंसान से
लकड़ी में तब्दील
हो जाती हूूं
सहना चाहती हूं
उस बेजान का दर्द
कि सीने पर
आरी जब चलती है तो
दर्द होता है
या बस कटता जाता है
मन की तरह दो फाड़
लकड़ी में तब्दील
हो जाती हूूं
सहना चाहती हूं
उस बेजान का दर्द
कि सीने पर
आरी जब चलती है तो
दर्द होता है
या बस कटता जाता है
मन की तरह दो फाड़
आज अब जब
कोई नहीं बोलता
तो कुछ नहीं सुनना चाहती
चुप हो जाओ हवाओं
मत हिलो
थम जाओ पत्तियों
काठ चीरने वाले
फेंक दो तुम भी
अपने औजार
सब चुप हो जाओ
कोई नहीं बोलता
तो कुछ नहीं सुनना चाहती
चुप हो जाओ हवाओं
मत हिलो
थम जाओ पत्तियों
काठ चीरने वाले
फेंक दो तुम भी
अपने औजार
सब चुप हो जाओ
अब नहीं सुनना चाहती
कोई भी आवाज
जब से वो नहीं बोलता मुझसे
अब कोई भी नहीं बोलता...।
कोई भी आवाज
जब से वो नहीं बोलता मुझसे
अब कोई भी नहीं बोलता...।
3 comments:
सुन्दर प्रस्तुति
क्या देखा किसी ने
गुम हुआ सूरज मेरा
या चोरी हो गई धूप।
सुन्दर रचना
Behad umdaa...gahre ahsaas.
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