Wednesday, December 31, 2014

गुजरे लम्‍हों से खर्च हुई उम्र तक


मैं नहीं चाहती
शायद 
कोई भी नहीं चाहता
बीते वर्ष के
गुजरे लम्‍हों से
खर्च हुई उम्र तक
सब कुछ साथ चला आए

वक्‍त की रेती ले
रेतती रहती हूं 
सारी बुरी यादें
भुला देना चाहती हूं
वो सारी कनबति‍यां
जि‍न्‍हें कभी नहीं
सुनना चाहा मैंने

बुनना चाहती हूं
खुशरंग यादों और वादों की
एक लाल 'सालू' 
जि‍सके गाढ़े रंग में 
छुपा लूं
बीते दुखों का बोझा
और करूं स्‍वागत
नवआगत का

मगर
मैं कुछ भी नहीं छोड़ पाती
देखती हूं 
बार-बार मुड़कर
साल के अंति‍म दि‍न
ढलती सांझ को, 
और सब साथ चले आते हैं
साथ चलती परछाईं सी..... 

3 comments:

कविता रावत said...

साल जो अच्छा गुजरे तो उसके अच्छी याद वर्ना अच्छी न गुजरे तो एक कसक जब तब याद आ ही जाता है ..
बहुत बढ़िया रचना ..
नए साल की हार्दिक शुभकामनायें!

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

साल गुजर जाने के बहाने यादों, सम्‍वेदनाओं और इनसे प्रभावित-दुष्‍प्रभावित एक स्‍त्री मन की व्‍यथाओं और कथाओं को बहुत सुन्‍दर तरीके से प्रकट किया है।

अजय कुमार झा said...

कहां कोई छोड पाता है ..........सच ...बहुत बहुत शुभकामनाएं आपको ..लिखती रहें ..