मैं नहीं चाहती
शायद
कोई भी नहीं चाहता
बीते वर्ष के
गुजरे लम्हों से
खर्च हुई उम्र तक
सब कुछ साथ चला आए
वक्त की रेती ले
रेतती रहती हूं
सारी बुरी यादें
भुला देना चाहती हूं
वो सारी कनबतियां
जिन्हें कभी नहीं
सुनना चाहा मैंने
बुनना चाहती हूं
खुशरंग यादों और वादों की
एक लाल 'सालू'
जिसके गाढ़े रंग में
छुपा लूं
बीते दुखों का बोझा
और करूं स्वागत
नवआगत का
मगर
मैं कुछ भी नहीं छोड़ पाती
देखती हूं
बार-बार मुड़कर
साल के अंतिम दिन
ढलती सांझ को,
साल के अंतिम दिन
ढलती सांझ को,
और सब साथ चले आते हैं
साथ चलती परछाईं सी.....
3 comments:
साल जो अच्छा गुजरे तो उसके अच्छी याद वर्ना अच्छी न गुजरे तो एक कसक जब तब याद आ ही जाता है ..
बहुत बढ़िया रचना ..
नए साल की हार्दिक शुभकामनायें!
साल गुजर जाने के बहाने यादों, सम्वेदनाओं और इनसे प्रभावित-दुष्प्रभावित एक स्त्री मन की व्यथाओं और कथाओं को बहुत सुन्दर तरीके से प्रकट किया है।
कहां कोई छोड पाता है ..........सच ...बहुत बहुत शुभकामनाएं आपको ..लिखती रहें ..
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