छलछल
पानी के ऊपर चमकती है
सोने सी धूप
फिर भी सर्द हथेलियों को
होती है दरकार
एक नर्म अहसास की
पानी के ऊपर चमकती है
सोने सी धूप
फिर भी सर्द हथेलियों को
होती है दरकार
एक नर्म अहसास की
प्रवासी पंछियां
झील के पानी में
पहरों करने को किल्लोल
हजारों मील चलकर
हर साल चली आती हैं
झील के पानी में
पहरों करने को किल्लोल
हजारों मील चलकर
हर साल चली आती हैं
सर्द हवाओं की मुरीद बन
मैं तकती हर दिसंबर
तेरा रास्ता
काश इन वादियों में
इन पंछियों की तरह
कभी तुम भी चले आते...
मैं तकती हर दिसंबर
तेरा रास्ता
काश इन वादियों में
इन पंछियों की तरह
कभी तुम भी चले आते...
तस्वीर- कांके डैम जहां साइबेरियन पक्षी विचर रहे हैं अभी..
5 comments:
बहुत सुन्दर ...
बहुत सुन्दर ...
व्यथा मन को स्मृतियाँ और भी ज्यादा विकल कर देती हैं, और बावरा मन उन्हें भूलने को तैयार नहीं होता ,फल इन्तजार,इन्तजार और इन्तजार ,सुन्दर पंक्तिया , सुन्दर रचना
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
.
लो जी !
हम तो चले आए...
:)
सुंदर ! बहुत भावपूर्ण कविता !
बधाई !
Post a Comment