इल्जामों की संगीनें थीं , मोहब्बत पर कड़े पहरे थे !!
दरख्ते – यकीन को आँधियों ने हिला कर रख दिया ,
वो शाखे –शज़र ही टूट गई ,जिस पर हम ठहरे थे !!
मौसम-ऐ-गुल की तमाम नमी तू ही तो साथ ले गया ,
प्यास भरे इस दश्त पर भी वो बादल कभी घनेरे थे !!
तूने अदावत की पर हमने तो ज़ख्म नहीं दिए तुझे ,
तीरंदाज़ भी थे हम तीर अपने तरकश में बहुतेरे थे !!
क्यूँ समन्दर की रेत से अब आँख चुराता है नातवां ,
कल तक जिसकी आँखों में वो दो शंख सुनहरे थे !!
साँप के फन से खेलने का फन भी हमें मालूम है ,
तुम्हें बेज़हर जो कर गये वो इस गाँव के सपेरे थे !!
तस्वीर पतरातू सड़क की
3 comments:
बहुत बढ़िया ..
Hamesha Ki tarah hi lajawaab..dusara aashaar gazab ka
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (17-12-2014) को तालिबान चच्चा करे, क्योंकि उन्हें हलाल ; चर्चा मंच 1829 पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Post a Comment