फूलों पर छितरा ये खून कैसा
नाजुक गुलों ने
किसका क्या बिगाड़ा था
मत देखो ताबूतों में अब
कितने फूल हैं अंदर
और कितने बाहर
न पूछना रोती आंखों से
कितने ख्वाब मरे, लोग
जीते जी दफ़न हुए कितने
आओ हम भी ताबूत बनाएं
हर आंखों को
सिर्फ सच देखना सिखाएं
जिन्हें फूलों पर नहीं रहम
चुन-चुन के ऐसों को
आओ हम भी दफ़नाएं ।
तस्वीर- साभार गूगल
9 comments:
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18-12-2014 को चर्चा मंच पर क्रूरता का चरम {चर्चा - 1831 } में दिया गया है
आभार
sundar prastuti
.
"जिन्हें फूलों पर नहीं रहम
चुन-चुन के ऐसों को
आओ हम भी दफ़नाएं"
सच !
अब इसकी ज़रूरत है
फ़ैसले का वक़्त आ गया...
अच्छी सामयिक रचना !!
संवेदनशील प्रस्तुति ....
संवेदनशील प्रस्तुति ....
wah....dardpurn rachna...dukhad ghatna
काश की सब मिलकर ऐसा कर सकें ...
इंसानियत को बुलंद कर सकें ...
मजहब के नाम पर मासूमों की बलि दे डाली… संवेदनशील। ।
वाह.... बहुत मार्मिक
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