Wednesday, December 17, 2014

ये खून कैसा....



फूलों पर छि‍तरा ये खून कैसा
नाजुक गुलों ने
कि‍सका क्‍या बि‍गाड़ा था

मत देखो ताबूतों में अब
कि‍तने फूल हैं अंदर
और कि‍तने बाहर

न पूछना रोती आंखों से
कि‍तने ख्‍वाब मरे, लोग
जीते जी दफ़न हुए कि‍तने

आओ हम भी ताबूत बनाएं
हर आंखों को
सि‍र्फ सच देखना सि‍खाएं

जि‍न्‍हें फूलों पर नहीं रहम
चुन-चुन के ऐसों को
आओ हम भी दफ़नाएं ।

तस्‍वीर- साभार गूगल

9 comments:

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18-12-2014 को चर्चा मंच पर क्रूरता का चरम {चर्चा - 1831 } में दिया गया है
आभार

shashi purwar said...

sundar prastuti

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

.

"जि‍न्‍हें फूलों पर नहीं रहम
चुन-चुन के ऐसों को
आओ हम भी दफ़नाएं"


सच !

अब इसकी ज़रूरत है
फ़ैसले का वक़्त आ गया...


अच्छी सामयिक रचना !!

कविता रावत said...

संवेदनशील प्रस्तुति ....

कविता रावत said...

संवेदनशील प्रस्तुति ....

Rewa Tibrewal said...

wah....dardpurn rachna...dukhad ghatna

दिगम्बर नासवा said...

काश की सब मिलकर ऐसा कर सकें ...
इंसानियत को बुलंद कर सकें ...

Pratibha Verma said...

मजहब के नाम पर मासूमों की बलि दे डाली… संवेदनशील। ।

Unknown said...

वाह.... बहुत मार्मिक