सांझ,कभी-कभी तुम
यूं भी आती हो,
पीतवसना, पीली सी सांझ बन
तुम ऐसे आती हो
जैसे हो
छोटी सी, फुदकती सी
'पीत-चिरैया'
मेरे मन के खाली
आसमान पर
मंडराती हो, छा जाती हो।
सांझ,कभी-कभी तुम
यूं भी आती हो,
जैसे रेगिस्तान में
पीली-पीली आंधियां चले
बिखर जाती हो
समूचे नभ पर, हल्दी बनकर
जैसे किसी क्वांरी को सखियां
पिया का उबटन मले।
सांझ कभी-कभी तुम
यूं भी आती हो,
जब तुम
सिंदूरी चोला बदल
दहक जाती हो
सोने की बन
किसी षोडसी की आंखों में
नौलखा हार की तरह
उतर जाती हो, घर कर जाती हो
मुझको और भी भाती हो........।
तस्वीर...आज सांझ की
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