चीड़...
तुम खड़े रहो
उर्ध्वमुखी, गगनचुंबी
पहाड़ों को नापते
काले-सफ़ेद मेघों के गले मिलते
झरती, नुकीली
हरी-पीली पत्तियों का
बिछौना है लगा
जो संभले, नाप ले दूरी
नहीं तो
अतल गहराईयों में
शूलों की सेज भी है तैयार
चीड़..
सुना है मैंने
तुम्हारे जंगलों को बोलते
पत्तियों से उलझ कर
निकलती है सर्र-सर्र हवा
तो कभी
हा-हा करता व्यथित मन सा
अंतस को छेदता हाहाकार
शाम का पीलापन
अटका है शाखों पर
दरख़्त की घनेरी छांव
चीड़ की कोन पर अब
उतर आएंगे सितारे, झिलमिलाएंगे
चंद्रमा की रौशनी में
खो जाएगा तुम्हारा-मेरा अस्तित्व
चीड़...
तुम्हारी
सूखी-झरी पत्तियों के बीच
उग आई है हरी घास
मैं रोप आई हूं खुद को वहीं
एक चट्टान की ओट में
पहाड़ तब बुलाएगा मुझको
जब किसी चीड़ की दरख़्त से लिपट
मैं होने लगूंगी उर्ध्वगामी.......
तस्वीर.....चीड़ के दरख़्त और उन्हें बुलाता बेटा अभिरूप
1 comment:
गाँव में चीड़ की छाँव में बीते दिन याद आ गए
बहुत सुन्दर
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