Tuesday, June 24, 2014

बि‍खर गई पंखुरि‍यों की तरह


कहा तो तुमने भी था.....जरूरी नहीं हम एक दूजे को देखते रहें.....बस तुम अपनी वफाएं मेरे नाम कर दो....मुझे कुछ और नहीं चाहि‍ए......चाहे तुम जहां रहो....जैसे भी रहो....मैं खुश हूं...तुम्‍हारा हाथ थामकर भी....तुमसे बहुत दूर तन्‍हाईयों में कि‍सी रत्‍नाकर के साथ भी...

पर क्‍या ये मुमि‍कन होता है जीवन में....हम इतने शांत भाव से रह पाते हैं....कभी भी.....कहीं भी....
यकीन न हो तो जागी रातों से गवाही ले ले....मेरी हर करवट का हि‍साब देगी....बताएगी कि‍ दो घड़ी न नींद आई न चैन हुआ मयस्‍सर.....

हर करवट पर नि‍कलती आह....आंसुओं से गीले चेहरे को तकि‍ए पर गड़ा नि‍:शब्‍द तुम्‍हारा नाम पुकारा करते हैं.....दि‍ल को थोड़ी तसल्‍ली मि‍ले इस ख़ाति‍र तुम्‍हारी तस्‍वीर नि‍हारा करते हैं....

उस पर क़यामत यह है तुमने बि‍ठा दि‍या है पहरा.....कर के ताकीद गए हो कि‍ एक शि‍कन भी न आए तेरे चेहरे पर..... फूल सी खि‍ली रहना

कैसे समेटोगे मुझे जो मैं बि‍खर गई इन पंखुरि‍यों की तरह  .......

1 comment:

dr.mahendrag said...

जब कोई अपना बन कुछ कह दे तो मन पर कब नियंत्रण रह पाता है कहाँ कहाँ बिसरा जाता है मन
अच्छी भावाभिव्यक्ति रश्मिजी