Thursday, June 19, 2014

प्रेम का रूप......


प्रेम ...
तुम हर दि‍न
एक नया रूप
दि‍खाते हो
भरमाते हो, समझाते हो
पीड़ा के उच्‍चशि‍खर पर
ले जाते हो

बन काले मेघ
नीले अंबर पर
मंडराते हो
क्रोध की अग्‍नि‍शि‍खा से
छूटती है दामि‍नी
जलाने को सर्वस्‍व

तड़ककर गि‍रने से
ठीक पहले
त्‍याग सारा अभि‍मान
शीतल अश्रु में
बदल जाते हो

प्रेम..
तुम हि‍मशि‍ला से
कलकल नदी
क्राेधाग्‍नि‍ से
मलय समीर में
कब कैसे परि‍वर्तित हो जाते हो
मुझको हर दि‍न क्‍यों भरमाते हो......


तस्‍वीर..कौसानी से दि‍खता हि‍मालय.....

3 comments:

Jyoti khare said...


बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
सादर -----

Anita said...

प्रेम की सुंदर व्याख्या..

Unknown said...

आपकी इस अभिव्यक्ति की चर्चा कल रविवार (29-06-2014) को ''अभिव्यक्ति आप की'' ''बातें मेरे मन की'' (चर्चा मंच 1659) पर भी होगी
--
आप ज़रूर इस चर्चा पे नज़र डालें
सादर