बिहार में गया इसलिए प्रसिद्ध है कि यहां पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान किया जाता है और बोधगया इसलिए क्योंकि यहां पीपल के पेड़ के नीचे महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति के लिए है।
बस यही दो पहचान है जो बचपन से मेरे मन में अंकित थी।
पहली बार बोधगया जाने का मौका तब लगा जब मैं इंटरमीडिएट में थी और कालेज से ट्रिप गई। उस वक्त की मस्ती...बस में सहेलियों के साथ खेली गई अंताक्षरी और बोधगया पहुंचकर बोधिवृक्ष के नीचे की शांति की याद अब तक है। वहां से पीपल के पत्ते पर महात्मा बुद्ध की उकेरी आकृति को लेकर आई थी और बरसों संभालकर रखा।
पिछले वर्ष बोधगया में लगातार कई बम विस्फोट हुए। उस घटना के करीब तीन महीने बाद एक बार फिर मैं वहां गई। इस बार वहां मुझे कुछ दिलचस्प बातें पता चलीं।
जब हम मुख्य मंदिर की ओर चले। चारों तरफ रौशनी ही रौशनी थी और गुंबद पर स्वर्णपरत चढ़ाया जा रहा था। बड़ा ही भव्य मंदिर.....बहुत सारे लोग...ज्यादातर विदेशी......श्रद्धा से नतमस्तक...भगवे वस्त्र पहने तो कुछ सफेद वस्त्रों में लिपटे देशी-विदेशी। असीम शांति मिली वहां बैठकर। लोग प्रार्थना में लीन थे, झुंड के झुंड....बोधि वृक्ष के नीचे कई थालों में कमल के फूल भरे थे.....कुछ में फल......लोग पेड़ के पास लगी चारदीवारी को छूकर खुद को धन्य समझ रहे थे कुछ तो कुछ लोग पीपल पेड़ की पत्तियां जो जमीन पर गिर रही थी....उठाकर खुश हो रहे थे, जैसे उन्हें बुद्ध का आर्शीवाद मिल गया हो। समझ में आया कि कितना भी भयावह विस्फोट हो, श्रद़धा को कम नहीं कर सकता।
महाबोधि मंदिर के ठीक बगल में फल््गु नदी बहती है। इसका प्राचीन नाम निरंजना है। इसी नदी के तट पर बुधत्व की प्राप्ति हुई थी गौतम बुद्ध को। मैंने सोचा यहां आकर इस पवित्र नदी के दर्शन न करूं तो कुछ अधुरा रहेगा। मंदिर के आसपास के सभी मठों के दर्शन कर लिए थे। एक से एक भव्य मूर्ति बुद्ध की और उतना ही विशाल परिसर....
हम नदी की ओर निकले। शाम ढलने वाली थी। सूरज ठीक महाबोधि मंदिर के गुंबद पर डेरा जमाया बैठा हो...ऐसा लगा। जरा और पास से देखने की लालसा में नदी में उतरे.....वहां पानी बहुत कम थी..दूर तक रेत ही रेत...बहुत चौड़ी नदी की पाट मगर पानी बेहद कम...दूर बच्चे रेत पर फूटबाल खेल रहे थे। जरा आगे जाने पर देखा कि नदी पर पानी की पतली धाराएं और कई जगह बालू खोदकर पानी निकले जाने के निशान। मुझे जरा अजीब सा लगा। खैर..डूबते सूरज की तस्वीर और नदी पर इतने कम पानी होने के कारण तलाशने की इच्छा साथ लिए हम लौटे।
हम नदी की ओर निकले। शाम ढलने वाली थी। सूरज ठीक महाबोधि मंदिर के गुंबद पर डेरा जमाया बैठा हो...ऐसा लगा। जरा और पास से देखने की लालसा में नदी में उतरे.....वहां पानी बहुत कम थी..दूर तक रेत ही रेत...बहुत चौड़ी नदी की पाट मगर पानी बेहद कम...दूर बच्चे रेत पर फूटबाल खेल रहे थे। जरा आगे जाने पर देखा कि नदी पर पानी की पतली धाराएं और कई जगह बालू खोदकर पानी निकले जाने के निशान। मुझे जरा अजीब सा लगा। खैर..डूबते सूरज की तस्वीर और नदी पर इतने कम पानी होने के कारण तलाशने की इच्छा साथ लिए हम लौटे।
दूसरी कथा फल््गु नदी की, कि वह नदी माता सीता के शाप के कारण भूमिगत हो गई। जब राम, सीता और लक्ष्मण बनवास पर थे तब उन्हें राजा दशरथ की मृत्यु का समाचार मिला तो फाल्गु नदी के किनारे पिंडदान के लिए आए। राम के आदेश से आवश्यक सामग्री जुगाड़ के लिए लक्ष्मण गांव की तरफ गए। उन्हें आने में देर होने लगी तो राम भी चले गए। दोपहर सर पर था और पिंडदान का वक्त बीता चला जा रहा था। राम-लक्ष्मण दोनों तब तक लौटे नहीं तो सीता ने एक मिट्टी का दीप जलाकर पितरों का आहृवान किया। तभी वहां सीता को दो हाथ नजर आए। पूछने पर जवाब मिला कि वे दशरथ हैं और सीता पर प्रसन्न हैं।तब सीता ने पिंडदान कर दिया। दशरथ ने यह स्वीकार कर लिया। सीता ने कहा कि तर्पण वाली बात पर आपके बेटे विश्वास नहीं करेंगे। तब दशरथ ने कहा कि इस बात की गवाही फाल्गु नदी, गाय, केतकी फूल और आग देंगे। और संतुष्ट होकर दशरथ चले गए।
जब राम-लक्ष्मण लौट आए तो सीता ने उन्हें सारी बात बताई मगर उनलोगों ने यकीन नहीं किया। तब इन चारों साक्षियों को सीता ने बुलाया। परंतु ये चारों इस बात से मुकर गए।
अब फिर से तैयारी कर पूर्वजों का आह़वान किया तो दशरथ आए और कहा कि सीता ने तो तर्पण कर दिया ..अब दुबारा क्यों बुलाया मुझे। यह जानकर राम और लक्ष्मण लज्जित हुए और सीता से क्षमा मांगी ।
तब सीता ने इन चारों को श्राप दे दिया। फाल्गु नदी को कहा कि तुम्हारा पानी अब भूमिगत बहेगा। तब से यहां रेत ही रेत है।
अब फिर से तैयारी कर पूर्वजों का आह़वान किया तो दशरथ आए और कहा कि सीता ने तो तर्पण कर दिया ..अब दुबारा क्यों बुलाया मुझे। यह जानकर राम और लक्ष्मण लज्जित हुए और सीता से क्षमा मांगी ।
तब सीता ने इन चारों को श्राप दे दिया। फाल्गु नदी को कहा कि तुम्हारा पानी अब भूमिगत बहेगा। तब से यहां रेत ही रेत है।
ये कट़ सत्य है कि नारी पर अविश्वास की परंपरा अब भी कायम है। तब भी सीता पर राम-लक्ष्मण ने अविश्वास जताया था, आज भी पुरूषों को स्त्री की बात पर सहज विश्वास नहीं होता। और सत्यता के साक्षी भी अपनी जुबान बदल लेते हैं। युगों-युगों से स्त्री अपनी क्षमता, और ज्ञान का प्रर्दशन करती आ रही है मगर हर बार अविश्वास किया जाता रहा है।
तब तो फाल्गु नदी सीता के क्रोध का शिकार बन भूमिगत हो गई.अब भी श्रापित है...रेतीली..अगर आज की नारी का श्राप भी ऐसे ही असर करे तो शायद आधी दुनिया ही मरूस्थल में बदल जाए।
तब तो फाल्गु नदी सीता के क्रोध का शिकार बन भूमिगत हो गई.अब भी श्रापित है...रेतीली..अगर आज की नारी का श्राप भी ऐसे ही असर करे तो शायद आधी दुनिया ही मरूस्थल में बदल जाए।
तस्वीर--मेरे कैमरे से फल्गु नदी की
16 जनवरी को जनसत्ता के 'दुनिया मेरे आगे' कॉलम में प्रकाशित आलेख
7 comments:
सुबह पढ़ा था। बधाई एवं शुभकामनाएं।
Shukriya
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति...
आप सभी लोगो का मैं अपने ब्लॉग पर स्वागत करता हूँ मैंने भी एक ब्लॉग बनाया है मैं चाहता हूँ आप सभी मेरा ब्लॉग पर एक बार आकर सुझाव अवश्य दें...
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***आपने लिखा***मैंने पढ़ा***इसे सभी पढ़ें***इस लिये आप की ये रचना दिनांक 20/01/2014 को नयी पुरानी हलचल पर कुछ पंखतियों के साथ लिंक की जा रही है...आप भी आना औरों को भी बतलाना हलचल में सभी का स्वागत है।
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बढिया संस्मरण
सुन्दर आलेख ......
आधी दुनिया ही मरुस्थल हो आये , पञ्च लाईन मारक है !
बहुत बढ़िया !
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