अब हर रोज
ढलती शाम को
बढ़ने लगी है
हवाओं में खुनकी
जैसे तुम कभी
हौले-हौले
समाने लगे थे
मन में
और मन को
पता भी नहीं चला था
इस बार की
सर्दी
ठिठुराएगी बहुत
ओस ने
शुरू कर दिया है
ढलते शाम ही
धरती को ढकना
जैसे
मेरी चेतना पर
कभी तुम
छा जाया करते थे
जिंदगी में आने वाला
सर्दियों का मौसम
हर बरस
बर्फ के फाहों सी
सफ़ेद नरम संवेदनाएं
लेकर
मन विभोर करने
नहीं आता
कभी-कभी
अलाव नहीं
दिल के चराग जला
दूर करनी होती है
दरिमयां फैली शीतलता
बात मानो मेरी
इस बरस तुम
गुजरे लम्हात के
रेशे से बुन
एक नई चादर
बना लेना
और
ठंड से कांपती
रातों को
यादों के गर्म लिहाफ़
पहना देना
यकीनन
कुछ न कुछ बचा रहेगा
इस चादर तले....
तस्वीर--साभार गूगल
भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने...
ReplyDeleteआपको यह बताते हुए हर्ष हो रहा है के आपकी यह विशेष रचना को आदर प्रदान करने हेतु हमने इसे आज के ब्लॉग बुलेटिन - हंसी के फव्वारे पर स्थान दिया है | बहुत बहुत बधाई |
ReplyDeleteखूबशूरत भावों का संचरण है श्रृंगार है विप्रलंभ है ,जो भी है अनुभूति की पराकास्ठा है
ReplyDeleteसुंदर रचना के लिये ब्लौग प्रसारण की ओर से शुभकामनाएं...
ReplyDeleteआप की ये खूबसूरत रचना आने वाले शनीवार यानी 19/10/2013 को ब्लौग प्रसारण पर भी लिंक की गयी है...
सूचनार्थ।
वाह जी बढ़िया है
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteप्यार भरी बहुत सुन्दर रचना |
ReplyDeleteमेरी नई रचना:- "झारखण्ड की सैर"
बहुत सुंदर
ReplyDeleteअनुभूतियों के धागों से बुनी सुन्दर चादर |
ReplyDeleteनई पोस्ट महिषासुर बध (भाग तीन)
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