Tuesday, September 17, 2013

कीमती कि‍ताब से....


 कोई सफ़ा भी नहीं
 पलट कर देखता है
 एक  बार मगर
 करीने से सजा कर हमें
 रखता है कमरे में
 इंतजार में उनके
 गर्द का पैरहन पहन
 इन दि‍नों हम भी हो गए हैं
 एक कीमती कि‍ताब से....

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 एक लम्हे की चाह में गुजर जाएगी तमाम उम्र
 कि अब प्रेम मेरी आँखों से नीर बन बहता है...

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जिंदगी और रात बीत चुकी आधी-आधी
कुरेदो एक नया जख्म कि सिलसिला बरकरार रहे...

10 comments:

  1. कमाल की अभिव्यक्ति...
    बधाई !

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  2. जिंदगी और रात बीत चुकी आधी-आधी
    ***
    और आधी-आधी बातों को पिरो कर एक सम्पूर्ण अभिव्यक्ति!
    बधाई!

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  3. आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल {बृहस्पतिवार} 19/09/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" पर.
    आप भी पधारें, सादर ....राजीव कुमार झा

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  4. जिंदगी और रात बीत चुकी आधी-आधी
    कुरेदो एक नया जख्म कि सिलसिला बरकरार रहे...

    waah.... kya baat hai.

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  5. जिंदगी और रात बीत चुकी आधी-आधी
    कुरेदो एक नया जख्म कि सिलसिला बरकरार रहे...
    बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति.
    परन्तु आशावादी बन गुस्ताखी से कहना चाहूँगा रश्मिजी,
    बहुत गम है जख्म देने को,बहुत रात बाकी है नयी सुबह होने को,
    बहुत लोग हैं दुनिया में दूजो के जख्म कुरेदने को,क्यों न सिलसिला शुरू करें उनके मिटाने को.

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  6. सुन्दर रचना के लिए आपका सहर्ष आभार। सादर।।

    नई कड़ियाँ : मकबूल फ़िदा हुसैन

    राष्ट्रभाषा हिंदी : विचार और विमर्श

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  7. सुन्दर रचना के लिए आपका सहर्ष आभार। सादर।।

    नई कड़ियाँ : मकबूल फ़िदा हुसैन

    राष्ट्रभाषा हिंदी : विचार और विमर्श

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  8. वाह....
    बहुत बढ़िया.....

    अनु

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