Thursday, September 12, 2013

शि‍राओं में बहते रक्‍त बन गए हो....

आए थे तुम
पुरवाई सी बन के
मेरी सांसों में समाकर
हृदय-स्‍पंदन बन गए हो
रूप-अरूप सा था सामने 
मेरे अभिरूप तुम 

मेरी आंखों में समाकर
काजल से बन गए हो
जेठ की दोपहर सा जीवन
पीपल की ठंडी छांव मि‍ली
मेरी बांहों में समाकर
पवि‍त्र गंगोत्री बन गए हो
मेरे होठों की ध्‍वनि में
समाहि‍त है
ईश-प्रार्थना सा तुम्‍हारा नाम
मेरी हर रोम में समाकर
शि‍राओं में बहता सा
उफनता सा रक्‍त बन गए हो
प्यार की शीतल बयार के
अभिव्यक्त बन गए हो... तुम