Wednesday, August 7, 2013

हरी चूड़ियों में ....


खनक उठता है 
मेरी कलाइयों में 
तू हर रात 
तेरी ही दी हुई 
हरी चूड़ियों में 
मेरी हथेलियों में
कल ही जो मांड गई है सखी
उन मेंहदी के बीच
कहीं छिपा है तेरा ही नाम
सुर्ख चमेली की पत्तियों में

आज भी हर सुबह
मेरी बंद आँखें ढूंढती हैं
तेरी नरम हथेली की छुअन को
मैं आँखें बंद कर चली आती हूँ
उसी ‘गुलाबी गुडहल’ के
बिरवे तले, तलाशती हूँ
तेरी उसी जादुई चुभन को

आजा कि
मेरी तरह ये ओस पगी कलियाँ
बुलाती हैं तुझे भी
जिद के दरिया को महिवाल की तरह
पार कर आजा
मुझे पता है
मेरी याद में रुलाती है
ये सहर तुझे भी
और तेरी आँखें आज भी
तलबगार होती हैं हर सुबह
मेरी जुल्फों की अभी भी ...

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