सच है
मन के तार की झंकार
बिना साज भी
झंकृत करती है
समूचे अस्तित्व को
और
वेदना के पलों में
नाजुक संवेदनाएं
और मुखरित होती हैं
हां, मैं हूं अपराधिनी
अनजाने ही सही
अनसुनी की मैंने
वो आवाज
जब हृदय के हाहाकार से
दग्ध तुम पुकार रहे थे
तुम मेरा नाम
अब जबकि
प्रतिउत्तर न पाकर
दिग्भ्रमित होकर वो
कातर आवाज
विलीन हो गर्इ अनंत में
और जो मुझ तक आ रही है
वो तुम्हारी नरम और
प्यारी ध्वनि नहीं
एक ज्वालामुखी है
मत करो ध्वस्त सब कुछ
वक्त दो वक्त को
धीरज धरो
मन का मौसम भीगा सही
आज हम मीलों दूर कहीं
मगर
चलेगी बासंती पुरवाई
ये यकीन अभी एक
ताजी हवा है लेकर आई.....
तस्वीर--साभार गूगल
बहुत ही प्रभावी.
ReplyDeleteरामराम.
आपको यह बताते हुए हर्ष हो रहा है के आपकी यह विशेष रचना को आदर प्रदान करने हेतु हमने इसे आज के ब्लॉग बुलेटिन - इंतज़ार उसका मुझे पर स्थान दिया है | बहुत बहुत बधाई |
ReplyDeleteEk aas vishvaas ke saath vo aubha jarur aayegi ...sundar bhav khubaurat rachna .
ReplyDeleteमन के तार की झंकार ही तो है- कान बंद कर लें तो भी सुनाई दे जाती है!
ReplyDeleteबेहतरीन अभिवयक्ति.....
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (04-08-2013) के चर्चा मंच 1327 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
ReplyDeleteमत करो ध्वस्त सब कुछ
ReplyDeleteवक्त दो वक्त को
धीरज धरो
मन का मौसम भीगा सही
आज हम मीलों दूर कहीं
मगर
चलेगी बासंती पुरवाई
ये यकीन अभी एक
ताजी हवा है लेकर आई.....
इन पंक्तियों के लिये विशेष रूप बधाई, वाह !!!!!
आपकी इस प्रस्तुति को शुभारंभ : हिंदी ब्लॉगजगत की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुतियाँ ( 1 अगस्त से 5 अगस्त, 2013 तक) में शामिल किया गया है। सादर …. आभार।।
ReplyDeleteकृपया "ब्लॉग - चिठ्ठा" के फेसबुक पेज को भी लाइक करें :- ब्लॉग - चिठ्ठा
बहुत ही भावपूर्ण रचना रश्मि जी , बहुत बधाई ..
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