Thursday, August 1, 2013

न उदास हो मेरे हमसफर.....


दि‍वस के अवसान में
इस अकेली सांझ में
आंसुओं के उफान में
बहुत याद आते हो तुम......

सूरज चल पड़ा अस्‍तचल की ओर...पक्षी भर रहे उड़ान अपने घोसलें की तरफ.....और मैं.....उस सफेद बादल की तरह आसमान में नि‍रर्थक घूम रही हूं....जो बरसना तो चाहते हैं....बरस नहीं पाते....

मुझे बरसने का हुनर जो नहीं आता....ये तो काले बादल के नसीब में होता है.....सफेद बादल तो आस दि‍खाकर मन ललचाते हैं.....उतरकर हाथों को नहीं भि‍गोते....

कि‍ रख लोगे याद की तरह एक खूबसूरत से पारदर्शी डि‍ब्‍बे में...कुछ बूंदे मेरी यादों के....मेरे नाम से

एक तीखी चुभन, एक तीव्र हसरत और आस लि‍ए इंतजार में हूं..... इस गीत की पंक्‍ति‍यों से प्रेरि‍त होकर.....

है सफर बहुत ही कठि‍न मगर.....न उदास हो मेरे हमसफर


तस्‍वीर...अभी-अभी ढलती सांझ की...

7 comments:

  1. तस्वीर और आपके लिखे शब्द दोनों कमाल के ...

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  2. न उदास हो मेरे हमसफर-रश्मि जी आपकी यह कविता अपनी भाव-प्रवणता से हृदय को आप्लावित कर गई । रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
    rdkamboj@gmail.com

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  3. मुझे बरसने का हुनर जो नहीं आता....
    ये तो काले बादल के नसीब में होता है.....
    सफेद बादल तो आस दि‍खाकर मन ललचाते हैं.....उतरकर हाथों को नहीं भि‍गोते....

    बहुत ही सुंदर और सशक्त भाव.

    रामराम.

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  4. शामें उदास होती हैं या यादें उदास कर देती हैं अच्छी भली शामों को...
    पता नहीं....

    अनु

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