नियति है या प्रकृति.....
फिर एक बार
अविश्वास..आशंका और अभिशाप
के बीच
झूलता मेरा अस्तित्व
मुट़ठी भर सुख पाना
और खातिर इसके
सारा अर्जित गंवाना
जाने नियति है या प्रकृति
पर बार-बार होता है
हमें छलता है
और सारे आरोप-प्रत्यारोप
के बीच
पेंडुलम की तरह
झूलता मेरा अस्तित्व
तस्वीर--साभार गूगल
और सारे आरोप-प्रत्यारोप
ReplyDeleteके बीच
पेंडुलम की तरह
झूलता मेरा अस्तित्व … वाह , एक सशक्त रचना
बहुत सुंदर सशक्त रचना ,,,
ReplyDeleteRECENT POST : जिन्दगी.
बढ़िया कविता...
ReplyDeleteबहुत उम्दा
ReplyDeleteखुबसूरत प्रस्तुती......
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ...
ReplyDeletesach hai ..sare aropo pratyaropo ke bich jhulta astitav ..sundar rachna ..badhayi :)
ReplyDeleteवाह बहुत सुंदर जज़्बात
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