Thursday, July 18, 2013

वि‍देह हो जाना चाहता है.....


बनकर खुशी
कभी नहीं रहे तुम पास मेरे
जब भी महसूस कि‍या
उमस भरी दोपहरी की तरह ही
मि‍ले तुम
एक अबूझ बेचैनी लि‍ए
दर्द से अनवरत बहते हुए
आंखों में भर आए पानी जैसे
सर के दोनों तरफ की
तड़कती नसों में घुले दर्द के साथ
हरदम आए तुम

फि‍र भी

तुम्‍हारा पास न होना
इतना दर्द देता है जैसे
रेत रहा हो आरी से
एक हरेभरे पेड़ का
मजबूत तना कोई
और दूरी का अहसास
इस तरह पागल करता है
जैसे
शरीर छोड़ने को प्राण तड़पे
मगर मुक्‍ति नहीं मि‍ले

तुम हो न हो
तुम्‍हारा दर्द कसकता, टीसता है
हरदम
फि‍र भी ये नि‍स्‍पृह देह
वि‍देह हो जाना चाहता है
अंतरि‍क्ष में एक घर बनाना चाहता है
चाहे-अनचाहे मि‍ले
सारे दर्द को समेटकर
ध्रुव तारे की तरह हरदम
तेरे-मेरे नाम से 'एकनाम' बन
चमकना चाहता है.......


तस्‍वीर.....कल के खूबसूरत शाम की...नीला आकाश..बादल और उस पर चमकता चांद..

12 comments:

रविकर said...

आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवारीय चर्चा मंच पर ।।

Darshan jangra said...

सुन्दर रचना

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत गहरी अभिव्यक्ति.

रामराम.

Aparna Bose said...

फि‍र भी ये नि‍स्‍पृह देह
वि‍देह हो जाना चाहता है
अंतरि‍क्ष में एक घर बनाना चाहता है
चाहे-अनचाहे मि‍ले
सारे दर्द को समेटकर
ध्रुव तारे की तरह हरदम
तेरे-मेरे नाम से 'एकनाम' बन
चमकना चाहता है............ bohat hi sundar abhivyakti...

पूरण खण्डेलवाल said...

फि‍र भी ये नि‍स्‍पृह देह
वि‍देह हो जाना चाहता है
अंतरि‍क्ष में एक घर बनाना चाहता है
चाहे-अनचाहे मि‍ले
सारे दर्द को समेटकर
ध्रुव तारे की तरह हरदम
तेरे-मेरे नाम से 'एकनाम' बन
चमकना चाहता है.......

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

वाह... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...

प्रतिभा सक्सेना said...

विदेह हो जाना अर्थात् सब अनुभूतियों से परे ?

Dr (Miss) Sharad Singh said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति....

Dr (Miss) Sharad Singh said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.....

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

बहुत सुंदर
बहुत सुंदर

विभूति" said...

भावों से नाजुक शब्‍द......

ashokkhachar56@gmail.com said...

बहुत अच्छी रचना, बहुत सुंदर